Sunday, October 5, 2014

चाँद

चाँद ....गहन अंधकार में...
चाँद ...धीमी धीमी रोशनी में भीगा हुआ...
चाँद... पूरी तरह से प्रकाशित
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हर समय वह पूर्ण था|
दूसरा जो रूप था वह दिखने तो अपूर्ण था पर हर स्थिति उसकी खूबसूरत थी..और जब वह पूरी तरह से प्रकाशित हुआ तो वह अपने सौंदर्य की चरम सीमा में था...
पर वह हर समय पूर्ण ही था|
अपूर्णता देखने वाले की दृष्टि में थी पर वह यथार्थ में "पूर्णता" को प्राप्त था|


तन्हा आदमी....

पहले स्वयं ही औरों के प्रति कृतघ्नता/ शिकायत का भाव रखते हुए अपनी पहचान के लिए ऐसी व्यवस्था करता है कि वह तन्हा रह जाये ...फिर स्वयं ही शिकायत करता है कि कोई उसे "सहयोग" नहीं करता|
कैसे कोई करेगा?
आपने तो कोई कृतज्ञता ही व्यक्त नहीं की|
आपने तो कोई सहयोग ही नहीं किया|
जितना सहयोग मिला उसके लिए कभी आभार व्यक्त नहीं किया|
औरों को हमेशा पराया ही समझा| जिसे अपना समझा उस पर अपना अनुशासन चलाया|अपने इशारों पर चलाना चाहा| उसे एक यन्त्र समझा..उसकी भावनाओं की कभी कद्र ही नहीं की| कब तक ऐसे चलता रहेगा|
तन्हा आदमी....

Monday, August 11, 2014

What is more Important for you? Relations or Facility?


भारतीय ध्वज को स्पर्श करने का अधिकार किन्हें?

इस झंडे को फहराने वाले लोगों की भाषा भी देखिये...एक प्रबल हिंदू धर्म समर्थक जो कि Worked at .......  Party (.....)
In 2008 लिखते हैं...
नाम (अ ब स ) "Roshani Sahu चुप कर बकवास बाजी की दें है जो आज हमारा सिर नीचे है वरना हरहाथ काटकर नीचे रख दिया जाता जो हाथ तुम्हारे ऊपर उठते!!!!!!!!हिम्मत है तुम्हारे अंदर तो जाकर पुच मेरठ की इस लड़की से फिर आना भाषण देने!!!!!!!!!तुम हिन्दू लड्कीया अगर कमीनी न होती तो मुल्लों को उनके अब्बूओ के पास भेज देता हिन्दू समाज! लेकिन जब अपना ही सिक्का खोटा है तो फिर क्या करे। तुम बहने मत मानो हमरी बाते कौन कह रहा है तुम्हें??तुम्हें मुल्लों के तलवे चाटने है तो चाटो और 10-20 लड़कियो को लेकर जाओ। यूपी मे आकर रहो सारी खुमारी उतर जाएगी तुम्हारी समझ मे आया!!!!!!! हम पुरुष जाते है न मुल्लों के साथ अय्यासी करने????हम फँसते है न उनके चक्करों मे???"
इन महापुरुष के इस बयान पर मेरा यह लेख समर्पित है|

भारत का ध्वज
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भारत के राष्ट्रीय ध्वज जिसे तिरंगा भी कहते हैं|
क्या हमें जानकारी है कि इसमें जो तीन रंग हैं वह किसलिए है?
बीच में जो अशोक चक्र है वह किसे इंगित कर रहा है?
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गांधी जी ने सबसे पहले 1921 में कांग्रेस के अपने झंडे की बात की थी। इस झंडे को पिंगली वेंकैया ने डिजाइन किया था।

(१) =>"इसमें दो रंग थे लाल रंग हिन्दुओं के लिए और हरा रंग मुस्लिमों के लिए।"

(२) =>बीच में एक चक्र है।

(३) => "बाद में इसमें अन्य धर्मो के लिए सफेद रंग जोड़ा गया।"

स्वतंत्रता प्राप्ति से कुछ दिन पहले संविधान सभा ने राष्ट्रध्वज को संशोधित किया। इसमें चरखे की जगह अशोक चक्र ने ली। इस नए झंडे की देश के दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने फिर से व्याख्या की।
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प्रश्न- क्या हम पहली मान्यता को भी ठीक से निभा पा रहे हैं कि यह मात्र प्रतिक बस रहा गया?

प्रश्न -क्या इन रंगों को जिस पहचान के लिए प्रयोग किया जा रहा है? उस पर हम सभी नागरिक आपस में भाई चारे से रह पा रहे हैं?

प्रश्न- सम्राट अशोक की पहचान किस वजह से है? और जिस वजह से पहचान है क्या वैसा हम जी पा रहे हैं?

(अ) क्योंकि उन्होंने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष (२६१ ई. पू.) में कलिंग पर आक्रमण किया था। आन्तरिक अशान्ति से निपटने के बाद २६९ ई. पू. में विधिवत्‌ अभिषेक पश्चात कलिंग युद्ध में एक लाख ५० हजार व्यक्‍ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिया और एक लाख लोगों की हत्या कर दी गयी। (तेरहवें शिलालेख के अनुसार)

(ब) या फिर इसलिए कि उन्होंने भारी नरसंहार को अपनी आँखों से देखा। इससे द्रवित होकर शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार किया। उनका हृदय मानवता के प्रति दया और करुणा से उद्वेलित हो गया। उसने युद्धक्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की। यहाँ से आध्यात्मिक और धम्म विजय युग की शुरुआत कर बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया।
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अब यह बताइए हम जिस प्रकार रह रहे हैं उसे क्या कहें "आस्था" या "विश्वास" या फिर "छल/कपट/दंभ/पाखंड"...इत्यादि?
और ऐसा किसलिए हो रहा है?
किस चीज की कमी है?
क्या हम समझदार हैं?
या "समझदार" होने की आवश्यकता है?
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विचार करें..
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विचार करने के उपरांत अब आप ही निर्णय करिये कि क्या महत्वपूर्ण है?
यह सब प्रतीक या मानवीयतापूर्ण आचरण (यह आजकल हमारा जीना जो चल रहा है उस प्रमाण के आधार पर कह रही हूँ)
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अब तिरंगे झंडे को फहराने से पहले कम से इनके अर्थ तक जाने का प्रयास करें| और उस अर्थ को अपने जीने में लाये| तभी आप इस झंडे का मान रख पाएँगे|

और एक बात पर और विचार करें कि एक भाई साहब ने जिस लहजे में मुझसे बातचीत की है क्या वह भारतीय ध्वज को स्पर्श करने का अधिकार भी रखता है?

सादर प्रणाम...

समझदार

एक धरती तो संभल नहीं रही हमसे क्योंकि हम समझदार नहीं है, प्रमाण- यह धरती बीमार है
तो दूसरी, तीसरी, चौथी..... आदि कितनी भी धरती पर जाए क्या फर्क पड़ने वाला है?
वही के वहीँ रहेंगे|
यदि "समझदार" रहते तो
यह धरती स्वर्ग होती, मानव देवता होते |
धर्म सफल होता एवं नित्य मंगल होता ||
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क्या आप/हम चाहते हैं कि
"भूमि स्वर्ग हो जाये, मानव देवता हो जाये?
धर्म सफल हो जाये एवं नित्य मंगल हो जाये?
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तो इसके लिए क्या करना होगा?
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हम सभी को "समझदार" बनना होगा| सभी को कहा है एक व्यक्ति के समझदार होने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला|
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समझदार कैसे बने?
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"सही समझ" को समझा जाये|
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सही समझ क्या है?
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स्वयं को समझा जाये, अस्तित्व को समझा जाये, मानवीयता पूर्ण आचरण को समझा जाये|
उसे समझ कर जीया जाये| लोगों को भी समझाया जाये| उनके लिए प्रेरणा का स्रोत बना जाये|

समझना=>जीना=>समझाना
सीखना=> करना=> सिखाना
इसके अलावा और मानव का कोई कार्यक्रम नहीं है|
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सभी मानव को कैसे समझाया जाये?
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मानव चूँकि "संस्कारानुशंगी" है| मानव "संस्कार/सही समझ" से ही अपने आचरण/स्वभाव में होना रहना पाया जाता है अत: मानव को संस्कार बनाने हेतु "शिक्षा के मानवीयकरण" की आवश्यकता है|शिक्षा से मानव "संस्कारी" बनता है|
(सही) शिक्षा की शुरुआत घर से होती है फिर बाहरी वातावरण तत्पश्चात विद्यालय|
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क्या अभी की शिक्षा मानवीयकरण नहीं है?
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आप स्वयं में जांचे कि अगर वर्तमान शिक्षा "मानवीयकरण" होती तो क्या यह जो घटना वर्तमान में चल रही है वह देखने को मिलती?
वर्तमान शिक्षा में मानव को छोड़ कर बाकी सभी अवस्था (पदार्थ, प्राण (पेड़-पौधे), जीव अवस्था) पर ध्यान दिया जाता है| जबकि ये सब अपने अपने आचरण में है|
मानव ही अपने आचरण/स्वभाव में नहीं अत: मानव पर काम करने की आवश्यकता है|
मेरी जिंदगी जीने वाला मैं स्वयं हूँ और " मैं" ही स्वयं को नहीं जानता तो
कैसे मैं स्वयं में तालमेल पूर्वक रह पाउँगा?
कैसे मैं बाकी धरती की सभी अवस्थाओं के साथ न्याय कर पाउँगा?
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निष्कर्ष?
अत: "सही" (जो है उसका अध्ययन) को समझा जाये, (स्वयं का ज्ञान, अस्तित्व का ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण)
उसके अनुसार जिया जाये|
बाहर व्यवस्था के लिए स्रोत बन जाये| यही मेरा "स्वराज्य"/ "वैभव है"
जब इस धरती के सभी लोग इस प्रकार जीने लगे तो यही मानव परंपरा है|
तत्पश्चात ही यह धरती अपनी सम्पूर्ण वैभव में होगी और हम सार्वभौम व्यवस्था में अपनी पूरकता सिद्ध कर पाएँगे|
फिर हमें और अन्य धरती की आवश्यकता नहीं रहेगी हम निरन्तर सुख/समाधान/समृद्धि पूर्वक जी रहे होंगे| बढ़िया से :)
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इसे माने नहीं स्वयं में जाँचे|

Monday, July 21, 2014

इंसानियत

अभी हाल में ही उत्तरप्रदेश की बच्चियाँ के साथ बुरा बर्ताव कर उन्हें फाँसी दे दी गई, एक माता जी के साथ भी ऐसी घटना घटी कि इंसानियत शब्द का अर्थ लोगों को बताने में भी शर्म महसूस होती है|  राजधानी दिल्ली में दामिनी के साथ जो कुछ हुआ था लोगों ने उसके चरित्र पर ही उंगली उठाई थी कि इतने रात बस में उसे सफर करने की आवश्यकता क्या थी?

दु:शासन ने ऐसी हरकत की तो द्रौपदी की लाज कृष्ण ने बचा ली पर इन बच्चियों ने क्या कृष्ण को नहीं पुकारा? क्या वे उनकी भक्त नहीं थी? उत्तरप्रदेश की बच्चियाँ बेहद धार्मिक प्रवृत्ति की होती है फिर क्यों नहीं आये कृष्ण, भगवान, ईश्वर इस युग के दु:शासन से उनकी रक्षा के लिए?

पकिस्तान में एक गर्भवती महिला को पत्थर मार मार कर उसकी हत्या कर दी गई| सीरिया, गाजा में आये दिन बच्चों, महिलों, पुरुषों पर वर्णन नहीं कर सकने वाले अत्याचार हो रहे हैं क्या उन्होंने वक्त पर नमाज़ अदा नहीं की थी.?

जो मिशनरी अपने धर्म के प्रचार के लिए दूसरे देश जाते हैं उन्हें जिन्दा जला दिया गया| कहाँ गए उनके गाॅड, प्रभु यीश जी?
पंजाब पहले ही कई हादसों से गुजर चूका वो अभी भी हमें याद है...जिस समय कई सिख परिवार हादसे के शिकार हो रहे थे वे क्या कभी किसी गुरुद्वारे नहीं गए थे? फिर क्यों उन निर्दोषों के साथ ये हादसे हुए?
कहाँ थे उस वक्त ये भगवान, अल्लाह, प्रभु यीश और वाहे गुरु? क्यों नहीं आये उस वक्त इन सबकी मदद के लिए?
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या फिर हम ही किसी भ्रम के शिकार हैं?
हम ही "ईश्वर", "भगवान", "अल्लाह", "वाहेगुरु", प्रभु यीश को कुछ और मान बैठे हैं|
कृपया इस पर बहुत ही गहरे से विचार करें|
विचार करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि यह धरती अब बीमार हो चुकी है और विज्ञानी/ पढ़े लिखे लोग इसे और बर्बाद करने में तुले हुए हैं| परमाणु बम बनाये जाते हैं फिर उसका प्रयोग किसी दूसरे देश में किया जाता है| कोई भगवान, ईश्वर उन्हें बचाने नहीं आता|
अगर आपको उम्मीद है कि कोई चमत्कार होने वाला है और आप सभी बच जायंगें| तो फिर स्वयं में जाँचने की आवश्यकता है|
यदि "ईश्वर", "भगवान", "अल्लाह", "वाहेगुरु", "प्रभु यीश" हमको बचा सकते हैं तो फिर हमें चुप चाप घर में बैठ जाना चाहिए पर अगर "ईश्वर", "भगवान", "अल्लाह", "वाहेगुरु", प्रभु यीश होते हुए भी ऐसा कुछ नहीं कर सकते तो जिम्मेदारी हम पर है|

यह धरती हमारी है| जितनी भी घटनायें होती है सहअस्तित्व के नियमों पर ही होती है उन नियमों को समझकर ही हम स्वयं की और इस धरती की व्यवस्था को जैसा है (पहले जैसा स्वस्थ) वैसा बनाये रख सकते हैं| यह हमारी साझा जिम्मेदारी है| हम इससे भाग नहीं सकते हमारे आने वाली पीढ़ी का भविष्य फिलहाल तो हमारे ही हाथ है|
इन सभी बातों को कृपया जाँचा जाये...माने नहीं|
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(समाधान- स्वयं का ही सुधार व सह-अस्तित्व के नियमों में जीना, दूसरों के लिए प्रेरणा है| मेरा समझदारी पूर्वक जीना दूसरों के लिए उदाहरण बन जाये और वह भी मेरे जैसे जीने लगे| तो इसके लिए स्वयं पर काम करने की आवश्यकता है|
समझदार बने.|

सूत्र-
समझना-->जीना-->समझाना
सीखना-->करना-->सीखाना

धन्यवाद!

Wednesday, July 2, 2014

दंड देना क्या न्याय है?

अगर हम बदला लेने या जिसने गलती की है उसे जेल भेजने/दंड देने को न्याय कहते हैं तो इसे जाँचते हैं

संबंध में...
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स्थिति १ - एक बहु को उसकी सासु माँ ने अपने समय में खूब दबाकर रखा..बहु सहमी सहमी उसके हर जुल्म को सहते सहते अपनी आधी जिंदगी ऐसे ही गुजार दी|
अब बहु का समय है उसने जितना उसकी सासु माँ ने उसके साथ व्यवहार किया उसे गिन गिन कर बदला निकाल रही है| बुजुर्ग हो चुकी सासु माँ के पास अब सिवाय आँसू बहाने और डर के कुछ नहीं है|
स्थिति-२ - बहु जो अपने सास के अत्याचार को सहन किया क्योंकि इसके पीछे कारण क्या है उन्हें यह बात समझ में आ रही थी अत: बगैर शिकायत भाव के उसने समय समय पर उन्हें अपनी माता का ही दर्जा देकर समझाने की कोशिश भी की पर कोई भी फर्क नहीं पड़ा...बहु ने अपने कर्तव्य (सेवा) और दायित्व (समझाना) का पूरी तरह से निर्वाह किया...बुजुर्ग होती सासु माँ उसके कर्तव्य (सेवा भाव) और धैर्य पूर्वक दायित्व (समझाना) निर्वाह से बेहद प्रभावित हुई और उनमें बहु के प्रति प्रेम, सम्मान और कृतज्ञता रुपी मूल्यों का बहाव होने लगा|
और इस तरह एक परिवार का वातावरण सुखद हो गया|
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अब बताएँ कौन सा वाला न्याय आपको सहज स्वीकार हो रहा है?
स्थिति १ या स्थति-२

साधन भट्टाचार्य भैय्या जी

साधन भट्टाचार्य भैय्या जी जीवन विद्या शिविर लेने एक नारी निकेतन से निमंत्रण मिलने पर गए| एक शानदार बंगला था कालीन बिछी हुई थी| एक से एक साजो सम्मान और सुविधा थी|
खिड़कियों में परदे लगे हुए थे| भैय्या जी को लगा कि आस पास के लोगों को बंगले में क्या चल रहा है इसे जानने में कुछ ज्यादा रुचि हो रही है तो उन्होंने सारे परदे खोलने को कहा| 
अब देखो क्या देखना है...
खैर शिविर प्रारंभ हुआ पहले तो सारी बहनें उसमें शामिल हुई फिर ७ दिन के शिविर में एक एक करके कम होने लगीं|
भैय्या जी को कुछ समझ में नहीं आया उन्होंने शिविर लेना जारी रखा| 
पर आखरी दिन तो एक भी बहन शिविर में नहीं आई भैय्या जी बस यूँ ही बैठे रह गए|
फिर उन्होंने सन्देश भिजवाया तो पता चला कि सब अपने अपने घर वापस चली गई|
अब नारी निकेतन के मालिक चिंता में पड़ गए उन्होंने कहा ये आपने क्या किया अब यह निकेतन कैसे चलेगा?
भैय्या ने कहा यह तो आपको खुश होना चाहिए कि बहने वापस अपने घर चली गई आप घर तोड़ना चाहते हैं कि जोड़ना?
इसके आगे शायद उन्होंने कुछ नहीं कहा| 
तो यह था एक शिविर का असर 
इस घटना का जिक्र भैय्या जी अपने शिविर में अक्सर किया करते हैं| ऐसे एक नहीं कई उदाहरण मिल जायंगें| हर शिविर लेने वाले के पास ऐसे कई उदाहरण होते हैं जो उनको उत्साह और खुशीयों से भर देता है और यही उनकी पेमेंट है|

नोट- यह चित्र मैंने संकेत भैय्या जी के फोटो से लिया है|
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=668736663159678&set=pb.100000700513613.-2207520000.1402201414.&type=3&theater
इस बेहतरीन चित्र के लिए आभार|

कैसा विकास चाहिए आपको?

विकास का कौन सा अर्थ आपको सहज स्वीकार होता है?

१) धन, दौलत, गाड़ी, एशो आराम, शानदार बंगला, शानदार कांक्रीट की सड़कें, एक से एक मॉल से युक्त शहर
२) मानव चरित्र का विकास जिसमें पशु मानव से राक्षस मानव, राक्षस मानव से मानव, मानव से देव मानव, देव मानव से दिव्य मानव तक का सफर है|
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कहिये कैसा विकास चाहिए आपको या फिर प्राथमिकता में कौन सा पहले नंबर पर?

"ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" या "ब्रह्म सत्य जगत शाश्वत"

संक्षिप्त विचार
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=>"ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" 

इस मान्यता से हम स्वयं के साथ सम्पूर्ण जगत को मिथ्या मानकर चलते हैं| यह मान्यता अविश्वास की नींव पर ही रखी गई है| जब नींव ही "अविश्वास" पर रखी गई तब हम सम्पूर्ण जगत को मिथ्या मानकर चलते हैं और जब हम सम्पूर्ण जगत को मिथ्या मानकर चल रहे हैं तो दो बात सामने आती है या तो जगत (प्राणी/मानव/पदार्थ/सुविधा) का सम्पूर्ण त्याग करें या तो जगत (प्राणी/मानव/पदार्थ/सुविधा) का पूरी तरह से उपभोग करें| जितना मन चाहे उतना उपभोग करें/ शोषण करें...
परिणाम हम सबके सामने है अब यह धरती "मिथ्या शब्द" के चपेट में आकर बीमार हो गई है|
अब धरती बीमार तो सभी बीमार|

=>"ब्रह्म सत्य जगत शाश्वत" 

इस मान्यता से आप स्वयं के साथ सम्पूर्ण जगत को शाश्वत (शाश्वत का अर्थ है सदा सदा...बदलता नहीं, निरन्तर रहने वाली चीजें ) मानकर चलते हैं| इस मान्यता (मान्यता इसलिए क्योंकि यह किसी और का जानना है अभी हमारा जानना नहीं हुआ) की नींव ही 'विश्वास' पर रखी गई है| सर्वप्रथम आपको स्वयं पर विश्वास होता है कि मेरा वजूद है यह मात्र कल्पना/ मिथ्या नहीं|
मैं जीवन और मानव का संयुक्त रूप हूँ मुझमें यह क्रियाएँ हो रही है| जब स्वयं को जानकार विश्वास होता है तो औरों पर विश्वास होता है कि सामने वाला भी मेरे जैसा है उसमें भी यही क्रियाएँ हो रही है इसके पश्चात ही आप स्वयं के साथ जगत के प्रयोजन को समझने का और समझकर जीने का प्रयास करते हैं| इस तरह आप स्वयं के साथ सम्पूर्ण जगत (चारों अवस्था) के साथ जीने का प्रयास करते हैं| इस तरह आप स्वयं के साथ, सम्पूर्ण जगत (चारों व्यवस्था) के साथ न्याय पूर्वक जी पाते हैं|
तो आपने देखा कि इन दो प्रकार की मान्यताओं का प्रभाव हम पर कैसा हो रहा है?
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इस संक्षिप्त पेश किये गए विचार को कृपया माने नहीं स्वयं के अधिकार पर जाँचें|

हम विश्वास पूर्वक जीना चाहते हैं कि अविश्वास में?

हम विश्वास पूर्वक जीना चाहते हैं कि अविश्वास में?
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"ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या"
कि 
"ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत"
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क्या सहज स्वीकार होता है?

निश्चित रूप से आपका उत्तर स्वयं में आएगा कि "ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत" पर दूसरे ही क्षण आपमें दूसरा विचार उठेगा और उन लोगों को ज्यादा परेशान करेगा जो इसमें ज्यादा (वेद पुराण में) पारंगत हैं कि हमारे संत ऋषि- मुनि गलत कैसे हो सकते हैं जिन्होंने इसे देखा, जिनकी चाहना सर्व शुभ की है मानव जाति के कल्याण की है वे गलत कैसे हो सकते हैं| इस प्रकार आपके ऊपर उनका "मानना" हावी हो गया और आपने अपने अंदर की "सहज स्वीकृति" का गला घोंट दिया| 
अब इसका प्रभाव देखिये अब तक क्या हुआ?
शुरुआत ही अविश्वास से हुआ कि मात्र "ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या" अर्थात आप, हम, हमारे बच्चे, हमारा परिवार, समाज, हमारे द्वारा बनाई गई सारी प्रणाली, सारी प्रकृति ही मिथ्या है| इस प्रकार हम गृहस्थ में रहकर भी इस बात से पूरी तरह अनजान रहे कि परिवार ही इन सारी व्यवस्था ( अखंड समाज और सार्वभौम व्यवस्था) का आधार है| 
"ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या" का प्रभाव यह हुआ कि हम हमारे अपनों पर ही विश्वास नहीं कर पाये| औरों की बात ही छोड़िये हम स्वयं पर ही विश्वास नहीं कर पाये| 

"ब्रह्म से ही जीव-जगत पैदा हुआ और इसी में विलीन हो जाना बताया" इस एक और मान्यता का मतलब हम कुछ करें या ना करें आखिर ब्रह्म में ही तो समाना है सब कुछ माया है तो इससे अच्छा है कुछ करें ही नहीं बस ब्रह्म की याद में डूबे रहें और लोगों को इसके बारे में बताते रहे और लोग हमें दान दक्षिणा देते रहे| हम तो महान है क्योंकि हम उस ब्रह्म की याद में डूबे हुए हैं जो एकमात्र सत्य है और बाकी मिथ्या लोग, माया में डूबे लोग अगर हमें दान देंगें तो वे मोक्ष को प्राप्त हो जायेंगे| (यह उन लोगों की बात है जिन्हें प्रकृति के साथ श्रमपूर्वक उत्पादन/समृद्धि का ज्ञान नहीं )

एक बात और देखी..जैसे ही हमारे घर में किसी संबंधी की मृत्यु होती है आपको/ हमको ऐसा लगता है कि अब कुछ बचा ही नहीं..हम स्वयं को ठगा सा महसूस करते हैं कि हमने जिनके साथ तमाम जिंदगी का सफर तय किया वह इस दुनिया में ही नहीं है उसका अस्तित्व ही नहीं है चूँकि हमने तो मान रखा है ना कि "ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या" तो हमारा निराशा में जाना तो एकदम निश्चित है| 
अब इस घोर निराशा में डूबकर, जगत को मिथ्या मानकर, इस अविश्वास में रहकर हमने क्या उपलब्धि की यह हम सबके सामने है ही|
स्वयं का और परिवार में जीना सही नहीं रहा इसका असर समाज, देश व प्रकृति पर पड़ा|
धरती बीमार हो गई चूँकि "ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या" तो धरती का पेट फाड़ने से क्या होगा? वह भी तो हमारी तरह ब्रह्म में विलीन होने वाली है तो जब तक जी रहे हैं ऐसे करने में कोई बुराई नहीं है.......

तो बंधुओं बात यहाँ यह है कि हम यह नहीं कह रहे कि हमारे संत ऋषि मुनियों की सर्व मानव जाति की शुभ चाहना में कोई भी संदेह है...बिलकुल भी नहीं है बहुत से ऐसे महापुरुष थे जिनकी चाहना में शंका करना मूर्खता होगी और आज तक उन्होंने जो किया वह शायद ही हम कर सके.... वह एक आधार था जिस पर ही आगे का अनुसंधान हुआ|

तो गडबड़ी कहाँ हुई? चाहना में गडबड़ी थी/ कैसे करना में गडबड़ी थी या कार्य व्यवहार में गडबड़ी थी? क्यों यह धरती इतने शुभ चाहत और कार्य के बावजूद बीमार हुई?

गडबड़ी यह हुई कि हमने अस्तित्व को जैसा है वैसा पूरा नहीं देखा ("सही समझ" वास्तविकता को जैसा है वैसे ही देखने से आता है) अगर पूरा देखा होता तो जैसा है वैसा पूरा समझ पाते और समझा पाते और जिन्होंने पूरा देखा तब उनकी इतनी उम्र हो चुकी थी या जैसी भी स्थिति रही हो वे उस अनुभव को प्रमाणित नहीं कर पाये| 

आपको वो चार अन्धों वाली कहानी तो याद ही होगी सभी ने एक हाथी को अपने हाथ से स्पर्श कर कई तरह के निष्कर्ष निकाले|
एक ने हाथी के सूंड को पकड़ा तो उसे लगा कि यह तो सांप है|
एक ने हाथी का पैर पकड़ा तो उसे लगा कि यह खम्भा है|
एक ने उसकी पूछ पकड़ी तो उसे लगा कि यह तो रस्सी है|
फिर एक ने उसका कान स्पर्श किया तो उसे लगा कि यह सूपा है|
और सभी अपने अपने "मानना" में लगे रहे और उसे ही सही मानकर एक दूसरे से लड़ने लगे|
बस यही स्थिति है वर्तमान में इस संसार की|

अब यह तो आप ही तय करें कि
"ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" में जीना है 
कि 
"ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत" में ?
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अर्थात आपको विश्वास पूर्वक जीना है या अविश्वास में| यह आपको तय करना है क्योंकि ये शरीर यात्रा आपकी है और यह आपकी जिम्मेदारी है हम मात्र सूचना दे सकते हैं|

आप सभी का शुक्रिया कि आपने आज तक मुझे बेहद सम्मान से सुना| यह लेख थोड़ा कठोर है पर इसे आप सभी के साथ शेअर करना भी मुझे बेहद आवश्यक लगा| क्योंकि हर मानव "समझना" तो चाहता ही है| 
इस लेख में किसी भी प्रकार की त्रुटि के लिए क्षमा चाहूँगी| पेश किये गए विचार को कृपया माने नहीं स्वयं के अधिकार पर जाँचें|

सच्ची खुशी

एक अपने सबसे अच्छे मित्र का चित्रण कीजिये..उसके साथ बीते खुशनुमा पल याद कीजिये|
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चित्रण हो गया? चित्रण करके खुश हैं?
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अब बताये क्या आप उससे मित्रता उसकी सीरत (व्यवहार) देख कर किये थे?
कि सूरत देखकर किये थे?
कि धर्म/जाति देखकर किये थे?
बताइए?

फिर हम यह सब जाति, धर्म, मजहब हमारे जीने, मानव संबंधों में आड़े क्यों आता है? क्यों हम अपनी सच्ची खुशी इन सबके पीछे गंवाते हैं?
क्यों खुद भी दुखी होते हैं और औरों को भी दुख बाँटते हैं|
यहाँ क्या महत्वपूर्ण है?
व्यवहार या जात पात?
जो महत्वपूर्ण है उस पर हम क्यों काम नहीं करते?

मेरी पहचान

मेरी पहचान का मुख्य आधार क्या हो?
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मेरा धर्म, मेरी जाति,मेरा सम्प्रदाय, मेरा रंग, मेरा रूप, मेरा पद, मेरी भाषा?
या
"मानवीयता पूर्ण आचरण"?

भगवान????

......... ने इन लाखो लोगो को अकाल से क्यूँ पीड़ित होने दिया यदि वो भगवान या चमत्कारी थे? क्यूँ इन लाखो लोगो को भूंख से तड़प -तड़प कर मरने दिया?

{5}.......... के जीवन काल के दौरान बड़े भूकंप आये जिनमें हजारो लोग मरे गए।
(a) १८९७ जून शिलांग में
(b) १९०५ अप्रैल काँगड़ा में
(c) १९१८ जुलाई श्री मंगल असाम में

........... भगवान होते हुए भी इन भूकम्पों को क्यूँ नहीं रोक पाए?…क्यूँ हजारो को असमय मरने दिया?
यह एक कमेन्ट मैंने आज पढ़ा| इस पर प्रश्न उठे|
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प्रश्न-
क्या भगवान चमत्कारी होते हैं? क्या वे किसी भी भयंकर आपदा (भूकंप,ज्वालालामुखी) को रोक सकते हैं?
या फिर वे सभी रहस्यों से आपको मुक्त करते हैं और भयंकर आपदा का कारण और उसका निदान बताते हैं?
और ये जो भी आपदा आती है वह धरती के व्यवस्था के अर्थ में होती है या फिर धरती की तबाही के लिए?

प्रश्न-
भूख से मरने के लिए कौन जिम्मेदार है?
पदार्थ अवस्था, प्राण अवस्था (पेड़ पौधे और साँस लेती कोशिकाएँ), जीव अवस्था या फिर मानव अवस्था?

प्रश्न-
भगवान को क्या करना चाहिए?
क्या उनको हर भूखे के लिए खाना की व्यवस्था करनी चाहिए या फिर वे इन चार अवस्था ( पदार्थ अवस्था, प्राण अवस्था (पेड़ पौधे और साँस लेती कोशिकाएँ), जीव अवस्था, मानव अवस्था) में से एक इस आपदा के लिए जिम्मेदार अवस्था को "समझदार" बनने की प्रेरणा देनी चाहिए ताकि किसी भी आपदा के लिए वे आपस में सहयोग कर उससे निपटने के लिए सहज रूप से तैयार रहें|
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इसे जाँचे|

क्या आपके पास इन सब प्रश्नों के उत्तर हैं?

प्रश्न- १) जिस दिन इस धरती से तेल/पेट्रोलियम पदार्थ पूरी तरह खत्म हो जाएंगे उस दिन हम कैसे अपने वाहन चलाएंगे? विकल्प क्या है?
प्रश्न-२) धरती से पेट्रोलियम पदार्थ का पूरी तरह खत्म हो जाना किसके लिए समस्या और किसके लिए अवसर है?
प्रश्न-३) धरती में इस प्रकार के पदार्थ कैसे बनते हैं? इनको बनने में कितने वर्ष लगते हैं? और हम इसे धरती की व्यवस्था बगैर समझे निकाल कर कितने दिन में उपभोग करते हैं? हम सदुपयोग करते हैं या दुरुपयोग करते हैं?
प्रश्न-४) हम इन सब पदार्थ की कीमत चुकाते हैं? कि उस पदार्थ को निकाल कर हम तक पहुँचाने वाले की श्रम की कीमत चुकाते हैं?
प्रश्न-५) पेट्रोल का या ऐसे सभी धरती के पदार्थ का मूल्य क्या है?
प्रश्न-६) मूल्य और कीमत क्या अलग अलग बात है?
प्रश्न-७) अगर हम धरती से इस तरह कोयले, रेडिओएक्टिव , पेट्रोलियम पदार्थ निकलते रहेंगे तो धरती को क्या नुकसान हो सकता है?
प्रश्न-८) धरती को नुकसान होने की स्थिति में क्या मानव जाति, पशु पक्षी, पेड़ पौधे सुरक्षित रह पायेंगें?
इन सब समस्याओं का क्या समाधान है?
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क्या आपके पास इन सब प्रश्नों के उत्तर हैं? प्रश्न नंबर-४, ५ और ६ पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है?

महत्वपूर्ण क्या?

कितने मस्ती में रहते हैं ये नन्हें बच्चे..किसी बात की कोई फिक्र ही नहीं...मजा आ जाता है इनको देखकर
ये सिर्फ एक चीज में ही व्यस्त रहते हैं कि कैसे हमेशा खुश रहना है?
जैसे जैसे ये बड़े होने लगते हैं...इनकी सरलता जैसे कहीं खोने लग जाती है आखिर ऐसा क्या मिलता है इनको हमसे ऐसा... जो ये जैसे हैं वैसे नहीं रह पाते?
हमारी यंत्र/मान्यताएँ/ अपनापन-परायापन?

हमने (मॉडर्न सोसाइटी) कभी मानव को महत्वपूर्ण माना ही नहीं| उस नन्हें से बच्चे को हमने पैदा होते ही आया के हाथ सौंप दिया...
चूँकि हम कार्य कर रहे हैं उनकी हरकतों से परेशान होते हैं तो वीडियो गेम या टेलीविजन के सामने बिठा दिया|
थोड़े और बड़े हुए अच्छी शिक्षा के लिए उसे बोर्डिंग में भेज दिया...
हमने कभी यह ध्यान नहीं दिया कि वह नन्हा बच्चा क्या चाहता है?
उसे माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची अदि सम्बन्धियों की जरुरत होती है| उनसे वह प्रेम मूल्य सहित सभी मूल्यों की चाहना होती है|
पर हमने उन्हें इन सब से वंचित किया|
हमने उसे अपने कार्यों से यह सन्देश दिया कि महत्वपूर्ण यन्त्र है| महत्वपूर्ण मान्यतायं हैं| महत्वपूर्ण धन है|
अब इस बच्चे से आप यह अपेक्षा नहीं करें कि यह आपके बुढ़ापे में आपको महत्व देगा|
वह भी जिसे महत्वपूर्ण माने हुए है वैसा ही करेगा|
बिमार पड़े तो अस्पताल, बोर हो रहे हो तो टेलीविजन..और आपकी अच्छी परवरिश के लिए "वृद्धा आश्रम"|
इसे माने नहीं जाँचा जाये और अगर इसमें कुछ सच्चाई नजर आती है तो देरी किस बात की..आज से बच्चों को अपना महत्वपूर्ण और कीमती वक्त दीजिए...वह बच्चा और घर के अन्य संबंधी भी आपकी अन्य जरूरतों से ज्यादा महत्वपूर्ण है|

Tuesday, June 10, 2014

अनुसन्धान का लोकव्यापीकरण

मानव का पुण्य रहा तभी यह अनुसन्धान सफल हो पाया|

इस बात को लेकर मैं बहुत भरोसा करता हूँ कि मानव इस प्रस्ताव को स्वीकारेगा| मुझे इस प्रस्ताव में सर्वशुभ का रास्ता साफ़ साफ़ दिखाई पड़ा| तभी मैं इस प्रस्ताव के लोकव्यापीकरण में लग गया| कब तक?आखरी साँस तक! जब तक मेरी साँस चलेगा, मैं इस पर ही काम करूँगा|

इस प्रस्ताव में इतनी बड़ी संभावना दिखाई पड़ती है कि आदमी जाति अपराध मुक्त हो सकता है, अपना पराया दीवार से मुक्त हो सकता है| यह दोनों हो गया तो धरती के साथ होने वाला अत्याचार समाप्त होगा| अत्याचार यदि रुका तो धरती अपनी बची ताकत से जितना सुधार सकता है वह सुधार लेगा|

लोकव्यापीकरण के क्रम में अनेक लोगों से मिलना हुआ| अनेक लोगों ने अपने अपने तर्क को प्रस्तुत किया|

“तुम बहुत आशावादी हो!” यह बताया गया|

निराशावादी से आपने क्या सिद्ध कर लिया, यह बताइए| मैंने उनसे पूछा|

“तर्क समाप्त हो गया तो हम नीरस हो जायेंगे|” यह आशंका व्यक्त की गई|

तर्क के लिए तर्क करने से नीरसता होती है या तर्क को प्रयोजन से जोड़ने से नीरसता होती है? यह प्रस्ताव तर्क को प्रयोजन से जोड़ने के लिए है| प्रयोजन सम्मत तर्क समाधान को प्रमाणित करता है| समाधान आने से नीरसता दूर होगा या व्यर्थ के तर्क बनाये रखने से नीरसता दूर होगा? केवल चर्चा करते रहने से नीरसता दूर होगा या उपलब्धियों से नीरसता दूर होगा? ऐसा मैंने उनसे पूछा|

“एक व्यक्ति की बात को कैसे माना जाए?” यह शंका बताई गई|

व्यक्ति के अलावा आपको पढ़ने/सुनने को क्या मिलेगा?
जो कुछ भी आज तक कहा गया है और आगे भी जो कहा जायेगा, लिखा जायेगा वह किसी न किसी व्यक्ति द्वारा ही होगा|

“बहुत सारे लोग तो भिन्न बात को मानते हैं?” यह बताया गया|

बहुत सारे लोग मिलकर ही तो इस धरती को बर्बाद किया|यदि कुछ लोग उस भिन्न बात को मना भी कर देते तो इतना बर्बाद नहीं होता| सब लोग उस “भिन्न बात “ को मान लिए तभी तो धरती बर्बाद हुई| सब लोग बर्बादी के रास्ते पर हो गए वह रास्ता ज्यादा ठीक है? या एक व्यक्ति सही की ओर रास्ता दिखा रहा है वह ज्यादा ठीक है?

(जनवरी २००७, अमरकंटक)

स्रोत- संवाद-२ (मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद पर आधारित)
प्रणेता-श्री ए. नागराज

क्या धरती पर आदमी रह पायेगा या नहीं?

"विज्ञानी यह बता रहे हैं धरती का तापमान कुछ अंश और बढ़ जाने पर इस धरती पर आदमी रहेगा नहीं| सन् १९५० से पहले यही विज्ञानी बताते रहे कि यह धरती ठंडा हो रहा है| सन् १९५० के बाद बताना शुरू किये यह धरती गर्म हो रहा है| यह सब कैसे हो गया? इसका शोध करने पर पता चला इस धरती पर सब देश मिलाकर २००० से ३००० बार परमाणु परिक्षण किये हैं| ये परिक्षण इस धरती पर ही हुए हैं| इन परीक्षणों से जो ऊष्मा जनित होते हैं उसको नापा जाता है| यह जो ऊष्मा जनित हुआ, वह धरती में ही समाया या कहीं उड़ गया? यह पूछने पर पता चलता है यह ऊष्मा धरती में ही समाया है जिससे धरती का ताप बढ़ गया| धरती को बुखार हो गया है| अब और कितना बढ़ेगा उसकी प्रतीक्षा करने में विज्ञानी लगे हैं| इसके साथ एक और विपदा हुआ प्रदूषण का छा जाना| ईंधन अवशेष से प्रदूषण हुआ| इन दोनों विपदाओं से धरती पर मानव रहेगा या नहीं, इस पर प्रश्न चिन्ह लग गया है|
धरती को मानव ने अपने न रहने योग्य बना दिया| मानव को धरती पर रहने योग्य बनाने के लिए यह अनुसंधान (चेतना विकास मूल्य शिक्षा/जीवन विद्या/मध्यस्थ दर्शन) प्रस्ताव रूप में है|"

स्रोत- संवाद-२ (मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद पर आधारित)
प्रणेता-श्री ए. नागराज

Wednesday, June 4, 2014

हम पढ़े लिखे समझदार और सुखी लोग

हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...क्योंकि हमने इस धरती को बीमार किया| 
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...क्योंकि हमने नदियों को दूषित किया| 
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...क्योंकि हम धरती के पेट फाड कर कोयले/तेल/खनिज पदार्थ इतनी तेजी से निकाल रहे हैं ताकि इस धरती की गर्मी को पचाकर रखने वाला/धरती को संतुलन करने वाली व्यवस्था ही चरमरा जाये| 
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...क्योंकि हम इस धरती को बर्बाद करने वाली चीजें बनाना सिख रहे हैं विज्ञान के नाम पर|
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...क्योंकि हम परमाणु परिक्षण कर धरती को और भी ज्यादा गर्म कर रहे हैं ताकि धरती और मानव जाति और बाकी अवस्था सभी अपने मूल स्वरुप में आ जाये| जैसे पानी वापस हाइड्रोजन और ऑक्सीजन बन जाए|
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...क्योंकि हमारे बच्चे अब शराब, जुआ और ड्रग्स लेने लगे हैं| मतलब अब संस्कारी हो चले हैं| और बाकी सब क्या कर रहे हैं यह भी आपको सूचना रूप में पता है|ठीक है आपके बच्चे ये सब नहीं कर रहे हैं पर और जो बच्चे/ युवा हैं जिनके साथ इनका उतना बैठना है वे तो इस दलदल में फंसे हैं| कब तक आप उसे इस भयानक वातावरण से बचाकर रख सकेंगें?
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...क्योंकि हम अस्पताल में एक मृत शरीर को भी देने के लिए पैसे वसूलते हैं|
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...क्योंकि हम लिंग परिक्षण करके कन्याओं की हत्या का पाप अपने सर लेते हैं|
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...क्योंकि हम अपनी कलम का इस्तेमाल मानव जाति को एक करने की बजाय द्वेषपूर्ण वातावरण फ़ैलाने में करते हैं|
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं... क्योंकि हम दोहरे चरित्र में जीने के आदी हो गए हैं| परदे पर एक अच्छे इंसान का किरदार निभाते हैं जबकि असलियत में हम कुछ और ही होते हैं|
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...क्योंकि हमारी फैक्ट्रियों का धुआं और राख धरती व वातावरण को जहरीला बना रहा है|
हम वे पढ़े लिखे समझदार और सुखी लोग हैं......जिनको सत्य का पता नहीं पर कर्म कांड में स्वयं के साथ अन्य को भी उलझा कर रखे हैं|
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...क्योंकि हम सड़क बनाने के लिए हर भरे वृक्ष को बेदर्दी से काट कर उन पंछियों का जो बेजुबान है उनका आसरा छीन लेते हैं| धरती की सुरक्षा करने वाले वृक्ष को काट देते हैं|
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...जिसने शिक्षा को व्यवसाय बना लिया है| बजाय बच्चों में स्वयं के प्रति आत्मविश्वास, सम्मान और मानवीयतापूर्ण आचरण विकसित कैसे हो इस पर विचार करने के|
हम वे पढ़े लिखे समझदार और सुखी लोग हैं...जो आपस में ही एक घर के नीचे रहते (लड़ाई झगडा,अविश्वास, शंका) हैं जीते नहीं| 
हम वे पढ़े लिखे समझदार और सुखी लोग हैं...जो अपनी खुशी के लिए दूसरों पर आश्रित रहते हैं| अपना रिमोट कंट्रोल दूसरे के हाथ देकर खुद को समझदार और सुखी मानते हैं|
हम वे पढ़े लिखे समझदार और सुखी लोग हैं...जो कपड़े, पैसे, गहनों, गाड़ियों, बंगलों, तरह के व्यंजनों इत्यादि जो की निरंतर रहने वाली चीज नहीं है उससे निरन्तर रहने वाली चीज (सुख, सम्मान आदि) की अपेक्षा रखते हैं| 
हम पढ़े लिखे लोग समझदार और सुखी हैं...क्योंकि हमें "न्याय", "धर्म", "सत्य" क्या है? इसका ज्ञान नहीं फिर भी कोर्ट में न्याय कि जगह फैसले करते हैं|
हम वे पढ़े लिखे समझदार और सुखी लोग हैं...समाज सेवा के नाम पर अपनी ही सेवा कर रहे हैं|
हम वे समझदार लोग हैं जो अपने अपने खेतों को बेचकर मल्टीनेशनल कंपनियों के गुलाम बन रहे हैं|
हम वे समझदार लोग हैं जो देशी बीजों के बजाय संकरीत बीजों का प्रयोग कर स्वयं के साथ धरती और पशुओं को भी बर्बाद कर रहे हैं|
हम वे समझदार लोग हैं जो बेतहाशा कीटनाशक का प्रयोग अपनी फसलों पर कर रहे हैं ताकि बाकियों का जो हाना हो वो तो हो पर मेरी जरूरतों के लिए धन मिल जाये भले ही मुझे यह समझ नहीं कि मेरी जरूरतें इन्हीं समाज से पूरी होती है|
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क्या अब भी हमें लगता है कि हम समझदार हैं? कि "समझदार होने की आवश्यकता है? इसे स्वयं में जाँचे|

Wednesday, May 14, 2014

"जीवन नित्य उत्सव है|"

(एक संक्षिप्त चर्चा बच्चों पर, आप भी सादर आमंत्रित हैं) 
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आपने बच्चों को देखा होगा दिन भर खुश रहते हैं खेलते रहते हैं...वह ऐसा ही रहना चाहते हैं और हमें भी वैसा ही देखना चाहते हैं|


बच्चों को जब भी आप कुछ भी कहें सकारात्मक ही कहें, नकारात्मकता उनमें नहीं भरना है| बस सही की ही सूचना देवें| चाहे वह किसी भी माध्यम से हो (कविता, चित्र या फिर कहानियाँ)
अगर वे कुछ गलत करते हैं या फिर ऐसी चीजों की डिमांड करते हैं जैसे चॉकलेट, आइसक्रीम यहाँ पर उनकी इच्छा जरुर पूरी करें पर साथ में यह स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है और सही आहार क्या इस पर ज्यादा फोकस करें| साथ यह बात भी पूछी जाये कि क्या वे इससे "हमेशा/ निरन्तर खुश" रह सकते हैं? 
और निरन्तर खुश वे कैसे रह सकते हैं यह भी बताएँ| जैसे सहयोग करने से, आज्ञापालन करने से, संबंधों को पहचानने व निर्वाह करने से , सही संबोधन से, सही आहार, विहार, व्यवहार से, प्रकृति व जीवों के साथ न्याय पूर्ण कार्य व्यवहार करके आदि आदि... 
मानव संबंध और प्रकृति संबंध में से ज्यादा फोकस मानव संबंध पर करें...कोई भी भाषा (हिंदी, अंग्रेजी), गणित आदि के माध्यम से संबंध (७ संबंध) पर ही उनका ज्यादा ध्यान जाये यह प्रयत्न करें|

जैसा आप अपने साथ व्यवहार चाहते हैं प्रेम भरा, ठीक उनसे भी वैसा ही व्यवहार करें| 
प्रेम से ही चीजों को समझाएं|
डाँटना नहीं है| 
डाँटने से उनमें भय समा जाता है या फिर ऐसा भाव चला जाता है कि इस तरह से सामने वाले पर काबू किया जा सकता है| अब यह बात उनके जीने में आने लगती है| आगे आप कल्पना करने में सक्षम हैं और मेरा मानना है कि आप अपने बच्चे को भयभीत या क्रूर नहीं देखना चाहेंगे|

जीवन नित्य उत्सव है यह बात आपको शायद ठीक नहीं लगे ऐसा इसलिए क्योंकि हम मान्यताओं से चालित है मान्यताएं अच्छी या बुरी दोनों ही हो सकती है और इसी वजह से हमें सुख और दुःख एक सिक्के के दो पहलु लगते हैं| 

सही समझ की रोशनी में हम उसे पहचान सकते हैं|पर बच्चों के मामले में यह ध्यान रखें कि आप जो भी बात कहें उससे यह सन्देश जाना चाहिए कि हर क्षण हर पल उत्सव ही उत्सव है|
वह कैसे यह आपके विवेक पर निर्भर करता है| 
यह ज्यादा बेहतर होगा कि सही की सूचना पहले हममें ही आ जाये और खास बात जीने में आये क्योंकि बच्चे हमारा जीना देखते हैं| 
आगे इस पर हम और चर्चा करेंगें ...

Tuesday, April 15, 2014

Essence of Madhyasth-Darshan

1. Announcement for Awakening of Humankind

Let Live, and Live

2. Wish for Universal-Goodness

May Earth be Heaven, May Humans be Divine
May Dharma Prevail, May Goodness Arise Forever


3. Knowledge from Existential-experience

Infinite material and conscious units of nature are saturated in Space.
All units saturated in (transparent and permeable) space are with structure, attributes, true-nature, and dharma, exhibiting orderliness with its being-ness and participating in holistic-orderliness.


4. Fundamental-Principle of Nature

Forcefulness - Movement - Constitution


5. The Sermon

Know what you Believe,
Believe what you Know.


6. Status of Existence

State-full Nature saturated in Complete Space.


7. Evidence of Knowledge

Evidence of Knowledge is in Experience, Behaviour, and Work.

Knowledge-experience is the ultimate-evidence
Experiential-evidence itself is Understanding
Understanding itself is expressed
Expression of understanding itself is as resolved work and behaviour
Resolved work and behaviour itself is self-realization
Self-realization itself is Awakened-tradition
Awakened-tradition itself is Co-existence


8. Facts of Existence

Space is a Reality; Material-Nature is indestructible.
One pervasive Space; many conscious-entities.
Atma, buddhi, chitt, vritti, and mun are inseparable components of a conscious-entity (jeevan).
Human-being is a combined-expression of jeevan and body.
Space is one; godly-beings are many.
Human-race is one; their works are many.
Earth is one; nation-states are many.
One human-dharma (=happiness) manifests as many resolutions (as many as dimensions of human-living).
Jeevan is immortal; birth and death are events.

9. Reality

Development-Progression – Development-Completion in Coexistence
Awakening-Progression – Awakening-Completion
Expressions of Awakening-Completion, and Tradition of Wisdom

10. Knowledge

Knowledge of jeevan in co-existence
Knowledge of existence in the form of co-existence
Knowledge of humane-conduct
Experience itself is knowledge

11. Outcome of Research

Constitutional-Completeness
Activity-Completeness
Conduct-Completeness

12. Basis of Madhyasth-Darshan Proposition

Existence is coexistence as nature saturated in Space.

13. Proposition of Madhyasth Darshan

Material nature itself is in development-progression. Jeevan is a Development-Completed entity – as constitutionally-complete atom.
Jeevan (conscious-unit) upon awakening realizes undivied-society in human-tradition.
Awakened living with resolution and realizing sociality is human-ness.
Awakened living with awareness and realizing resolution is Godliness.
Humanness is as Integrity
Godliness is as Awareness with Integrity
Divinity is as Spontaneity with Awareness and Integrity
Constitutional-Completeness, Activity-Completeness, and Conduct-Completeness.

14. Truth

Natural-World is as units of nature saturated in space.
Natural-Inclination for Progress and Awakening is Destined.
Destiny for progress and awakening itself is Orderliness in Natural-World.
Human-being in illusion is free while doing actions, and is bound to face results of those illusive actions.
Awakened human-being is free both while doing actions, and in taking outcomes of those awakened actions.

15. Shelter of Humankind

Realization of Undivided-Society and Universal-Orderliness (Coexistence)

16. Orderliness in Humankind

Human-ness

17. Completeness in an Individual

Activity-Completeness
Conduct-Completeness

18. Completeness in a Society

Omni-dimensional Resolution
Prosperity
Trust
Coexistence

19. Completeness in a Nation-State

Skill
Art
Wisdom

20. Completeness in a World (Undivided World)

Unity (Universality) in Humane Culture, Civility, Norms, and Systems

21. Human Dharma

Happiness, Peace, Contentment, and Bliss

22. Basis of Living Principles

Systems for assuring right-use of resources (body, mind, and wealth)

23. Basis of Governing Principles

Systems for assuring conservation of resources (body, mind, and wealth)

24. Steps to Wisdom

Gross to Subtle
Subtle to Causal
Causal to Supreme-cause (Space)

25. Evidences of Awakening

Humankind evidences its awakening in a progressive manner.

Inhuman-ness to Human-ness
Human-ness to Godliness
Godliness to Divineness

26. Joy in Existence

Existence is joyous in all its expressions.

Jeevan – a conscious-entity – is joyous
Progression is joyous
Resolution is joyous
Awakening is joyous
Existential-Experience is joyous

27. Harmony at all levels

Harmony in all four dimensions of living of human-being (Work, Behaviour, Thinking, and Existential-experience).
Harmony in all five statuses of living of human-being (Individual, Family, Society, Nation, and World)
Harmony and Unity in Ten Staged Humane-Orderliness.

28. Ultimate Harmony

Existential-experience in Truth (Freedom from Illusion)

29. Accomplishment

Humankind’s experiencing established-values in coexistence
Resolution, Prosperity, and Universal-Goodness in Human-society
Freedom from illusion, and continuity of awakening


30. Completeness in Education

Value Education through Consciousness Development
Education of Technology

स्वराज्य

स्वराज्य का अर्थ समझे, जीये व समझाए बिना स्वराज्य नहीं आ सकता| अभी वर्तमान में स्वराज्य का अर्थ मेरा राज्य/ मेरा अधिकार ही प्रतीत होता है|

स्वयं के साथ प्रकृति समग्र का अध्ययन के पश्चात ही "स्वराज्य शब्द" का अर्थ हमारी मानसिकता में बैठने लगती है..स्वीकृति बनती है और प्राथमिकता बनने पर वैसा जीने का प्रयास स्वस्फूर्त होने लगता है इस प्रकार स्वयं का सार (स्वयं को, अस्तित्व को,संबंध को) जानकर, पहले हम स्वयं व्यवस्था में होते हैं तत्पश्चात बाहर व्यवस्था के लिए स्रोत हो जाते हैं...यही स्वराज्य है...यही स्वयं का वैभव है...

वातावरण

एक परिवार का उदाहरण लेते हैं २ स्थितियों पर विचार करते हैं..

पहली स्थिति परिवार के सभी सदस्य मिलजुल कर रहते हैं..मानवीयता पूर्ण आचरण में जीते हुए... सभी एक दूसरे के प्रति सम्मान, प्रेम और विश्वास का भाव रखते हुए हर निर्णय में एक दूसरे से सलाह लेते हुए कार्य व्यवहार करते हैं....ऐसे वातावरण में पला बढ़ा बच्चा.... आप कल्पना कर ही सकते हैं कि उसका भविष्य कितना उज्जवल और वह कितना चरित्रवान होगा! कम से कम ८०% अच्छी बातें तो वह सीखेगा ही..

और वहीँ एक दूसरी स्थिति...माता पिता आपस में लड़ते हुए...अपने बुजुर्गों को कोसते हुए..दिखाई देते हैं उस घर का बच्चा...बताइए कितने विश्वास पूर्वक जियेगा..और उसे किस प्रकार का वातावरण मिल रहा है? वह पूरे समय घर के सदस्यों का व्यवहार देख रहा होता है..और हर छोटी छोटी बातें उसे प्रभावित कर रही होती है...और जैसे ही यह बच्चा बड़ा होता है ठीक वैसा ही व्यवहार वह आपसे और बाकियों से करने लगता है...वह दोहरे चरित्र में जीने लगता है...
अब देखिये देश की स्थिति...और ये बच्चा जिसे आपका परिवार के साथ देश का माहौल भी प्रभावित कर रहा होता है...वह हर समय जाँच रहा होता है (इन्टरनेट के साथ टेलीविजन भी माध्यम है बाकी और तो है ही) कि हम सभी देश के नागरिक आपस में कैसे रह रहे हैं? कौन अपना... कौन पराया...यह सभी उसके आचरण में हम नागरिकों को देख कर आने लगता है... हम सभी नागरिक उस नन्हें से बच्चे जिसने इस दुनिया में/इस धरती पर अभी कदम भी नहीं रखा है..और वे सारे बच्चे जो इस दुनिया में/इस धरती पर आ चुके हैं..के माता पिता हैं...
हम अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते...ये बच्चे हमें (हम नागरिकों उर्फ अपने माता-पिता) को लड़ते देख रही है...
ये कैसा वातावरण हम उन्हें दे रहे हैं?
ये कैसी शिक्षा हम उन्हें दे रहे हैं?

हम कैसी पीढ़ी चाहते हैं? 
जो आपस में हमारी तरह लड़ते रहे या आपस में मिलजुल कर रहे? 
जाँचिये इसे और स्वयं ही निर्णय लें कि हमारी आने वाली पीढ़ी (इस देश की ही नहीं वरन इस धरती की क्योंकि धरती हम सभी की है) को कैसा वातावरण दें कि उनके चरित्र का विकास हो..वे निरन्तर सुख, समृद्धि पूर्वक रह सके..और जो स्वयं के प्रति विश्वास, सम्मान का भाव रखते हुए . .एक सुन्दर अखंड समाज की पृष्ठभूमि रख सके जिसमें अभय हो किसी से कोई डर ना हो..
क्या हम नहीं चाहते कि हमारे आने वाली पीढ़ी (इस धरती की) देवता हो..यह धरती स्वर्ग हो?
यदि ऐसा चाहते हैं तो इसकी क्या तैयारी हो रही है? विचार करें...
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"....प्रत्येक संतान को उत्पादन एवं व्यवहार एवं व्यवस्था में भागीदारी करने योग्य बनाने का दायित्व अभिभावकों में भी अनिवार्य रूप से रहता है क्योंकि प्रथम शिक्षा माता-पिता से, द्वितीय परिवार से, तृतीय परिवार के संपर्क सीमा से, चतुर्थ शिक्षण संस्थान से, पंचम वातावरण से..अर्थात प्रचार-प्रकाशन-प्रदर्शन से तथा प्राकृतिक प्रेरणा से भौगोलिक एवं शीत,उष्ण, वर्षमान से प्राप्त होती है|.."
अभ्यास दर्शन (अस्तित्व मूलक मानव केंद्रीत चिंतन) 
प्रणेता- आदरणीय ए.नागराज जी

विकास

विकास का मतलब मांसाहार नहीं यह देव मानव के स्वभाव नहीं है...तो विकास का सही अर्थ क्या????


विकास
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- जीवन पद में संक्रमित होना|
- परमाणु में गठन पूर्णता और क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता|
- गुणात्मक परिवर्तन अर्थात पदार्थवस्था से प्राणावस्था,
प्राणावस्था से जीवावस्था, जीवावस्था से ज्ञानावस्था|
ज्ञानावस्था में पाये जाने वाले पशु मनुष्य से राक्षस मनुष्य, राक्षस मनुष्य से मानव, मानव से देवमानव-देव मानव से दिव्य- मानव के रूप में| 
(परिभाषा संहिता(अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रीय चिंतन)- पे.न.- २०४)

तो ये है "विकास" का सही अर्थ...
अब यह बताइए हमने कौन सा विकास किया अब तक? अब जो भी विकास होना है जो हम मानव के हाथ में है अर्थात पशु मनुष्य और राक्षस मनुष्य से मानव, मानव से देवमानव-देव मानव से दिव्य- मानव के रूप में... यह किस आयाम द्वारा संभव है?
"शिक्षा संस्कार" द्वारा...

तो स्वयं में जाँचे कि कौन इस प्रयास में लगा है और उसे सामने लाइए...और यदि इन लोगों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है तो उनको यह एहसास दिलाना हमारा और आपका काम है...
अब वे अपनी बेहूदा मान्यताएँ/पूर्वाग्रह हम पर थोप नहीं सकते...शिक्षा (जो वर्तमान में चल रही नहीं बल्कि शिक्षा का मानवीयकरण पर जो काम कर रहा है ) से कम में इनकी बात सुने भी नहीं....

प्रतिबिम्ब और पारदर्शिता

लहरें पानी में जितनी ज्यादा हो उतनी ही दिक्कत होती है स्वयं का प्रतिबिम्ब और पानी के आर-पार देखना और जब तक यह स्थिति रहती है तब तक कई प्रकार के भ्रम बने ही रहते हैं|
 

जैसे एक वृक्ष की सुखी टहनी कभी एक रस्सी तो कभी सांप जैसे दिखाई देने लगती है|
पर ज्यों ही लहरें शांत व पानी साफ़ होने लगता है हम बहुत ही स्पष्ट रूप से अपने और अन्य वस्तुओं के प्रतिबिम्बों के साथ पानी के पारदर्शिता गुण की वजह से अंदर के दृश्यों को भी देख पाते हैं|
इसका चित्रण हो जाता है....पानी की उसी शांत अवस्था में और अलग गहराइयों पर चीजों का परिक्षण करते हैं और हर बार स्वयं आश्वस्त रहते हैं कि जो हमने पहली/दूसरी/तीसरी बार... देखी वह सत्य ही है अब हम प्रत्यके गहराई में दिखी चीजों और प्रतिबिम्ब का विश्लेषण करते हैं समझने का प्रयास करते हैं, समझ में आते ही हम उन वस्तुओं का प्रयोग करते हैं...आवश्यकता का मूल्यांकन , अनावश्यकता की समीक्षा कर पाते हैं| उसे अन्य लोगों को भी बताते हैं...इसे कहा देखना, समझना, जीना, समझाना|

यह स्थिति स्मृति में चित्रित, बुद्धि में एक बार पक्की हो गई और वस्तुओं को इस्तेमाल कर देख लिया तो पानी में चाहे कितनी भी ऊँची लहरे उठें हम भ्रमित नहीं होंगें और सही निर्णय लेने की स्थिति में होंगे|

वही जो मानव पानी में उठे लहरों के शांत होने पर व पानी के पूरी तरह से स्वच्छ होने तक इंतज़ार नहीं कर पाता वह हर बार एक नया चित्रण, चयन, विश्लेषण करता है तथा अपनी तरह अन्य मानवों को भी भ्रमित कर देता है|

उसकी मूल चाहत (स्वयं के साथ औरों को भी सुखी रहने की प्रेरणा देना) गलत है ऐसा नहीं है पर उसमें धीरता नहीं अत: वह हर बार गलत/भ्रमित निष्कर्षों तक पहुँच जाता है गलत समझता है, गलत जीता है और गलत समझाता है...

निष्कर्ष- अत: हमें धीरता के साथ स्थितियों को समझने का प्रयास करना चाहिए या फिर जिसने यह सारा दृश्य देखा, समझा, जीया हो उससे समझा जाए और उनके मार्गदर्शन में उस स्थिति तक पहुँचा जाए...
अब आपको कौन सा रास्ता सही लगता है? यह तो आपको ही तय करना है अनुसन्धान विधि या अध्ययन विधि?
धीरता तो दोनों में ही चाहिए..उसके बगैर तो सही परिणाम की अपेक्षा असम्भव है| 

नोट- हर इकाई का प्रतिबिम्ब अनंत कोणों पर उपस्थित इकाइयों में पड़ा ही हुआ है यही आधार है कि हर इकाई दूसरे इकाई को पहचान कर निर्वाह कर पाती है अत: हर बार सही प्रतिबिम्ब को देखने/समझने के लिए लहरों के शांत होने तक धीरता तो बनाये रखना होगा|

देखिये जाँचिये आपका प्रतिबिम्ब कितने कोणों पर कहाँ पड़ा हुआ है क्या आप अपना सही प्रतिबिम्ब देख पा रहे हैं? पहचान और निर्वाह हो पा रहा है|
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प्रतिबिम्ब व पारदर्शी-पारगामी का वास्तविक अर्थ-

प्रतिबिम्ब- प्रत्येक एक एक रचना विधि में अस्तित्व विधि में हर उपयोगी व पूरक इकाई के रूप में होना बिम्ब है| इकाई अपने सभी ओर प्रतिबिंबित ही है, परस्परता में पहचान का आधार प्रतिबिम्ब ही है| (परिभाषा संहिता- पे.नं.-१५४) (अस्तिव मूलक मानव केंद्रित चिंतन)

पारदर्शी-पारगामी- व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक एक डूबे, भीगे, घिरे रहना का प्रमाण, भीगे रहने का प्रमाण उर्जा सम्पन्नता, डूबे रहने से परस्परता की पहचान, पारगमियता ऊर्जा सम्पन्नता के रूप में परस्परता में (एक -एक) प्रतिबिम्ब पहचानने के अर्थ में| 
( परिभाषा संहिता- पे.नं.-१४०) (अस्तिव मूलक मानव केंद्रित चिंतन)
प्रणेता- आदरणीय ए.नागराज जी

Tuesday, April 1, 2014

India should be a rewarded for the good effort...

Respected president Barak Obama ji and all countries leaders please listen this message very carefully...

"We have assumed abundance to be in the form of comforts and hoarding, while highest form of abundance is awakening of jeevan (Body and I). It is only upon awakening that each human being can become free from conflict, sorrow and deprivation. This I have seen by thorough practice in my living. Each individual naturally expects to lead a life of abundance, and fountainhead of abundant life is understanding (realization in coexistence) only." - Shree A. Nagraj.  
So don't punish India for the solar panel. If you will be against of this step then no person has dare to do this good activity. 

http://www.thepetitionsite.com/624/749/511/dont-punish-india-for-developing-solar-power/?taf_id=10890365&cid=fb_na

Saturday, March 15, 2014

मेरा/ हर मानव का मूल लक्ष्य क्या है?

इस पर बराबर ध्यान बना रहे तभी हम अनावश्यक और आवश्यक वस्तुओं की समीक्षा और मूल्यांकन कर पायेंगें| 
नहीं तो हमारी स्थिति एक मकड़ी की तरह रहेगी जो एक दिन अपने ही बनाये जाले में फंस कर........जाती है|

जीवन नित्य उत्सव है...

पर कब?
हर क्षण लाखों कोशिकाएँ (प्राण अवस्था) नष्ट (पदार्थ अवस्था में रूपांतरित) हो जाती है निश्चित ही उनकी हर स्थिति उत्सवित होने वाली रहती है क्योंकि वह अनुशंगीयता (परिणाम व बीज) , स्वभाव (संगठन- विघटन, सारक-मारक)के अनुसार अपने धर्म का निर्वाह कर पा रही है|
पर वर्तमान में हमारी (हम ज्ञान अवस्था की) भ्रमित स्थिति है इसलिए हमारे लिए कोई खास दिन ही उत्सव का होता है पर जैसे ही हम "समझ" क्या है? इसे समझने/ जानने का प्रयास करते हैं तब हर क्षण हमारे लिए उत्सव का होता है (शंका मुक्त/ भ्रम मुक्त/ पीड़ा मुक्त/शिकायत मुक्त वाली स्थितियाँ और ३वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान(स्वयं, अस्तिव, मानवीयता पूर्ण आचरण) होने के कारण) ...यदि ऐसा नहीं है तो हमने स्वयं को "समझदार" होने का भ्रम पाल रखा है|
इसे स्वयं में जाँचने की आवश्यकता है...
यदि यह स्थिति मुझमें नहीं है इसका मतलब मुझमें लगातार सही पठन/ सही श्रवण/ सही देखना/सही समझने की आवश्यकता बनी हुई है|
आवश्यकता है कि नहीं? इसे स्वयं में जाँचा जाये|

Thursday, January 30, 2014

मध्यस्थ दर्शन की रोशनी में एक संक्षिप्त विचार

मध्यस्थ दर्शन की रोशनी में एक संक्षिप्त विचार व्यक्त करने का प्रयास 
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"मानव अवस्था/ज्ञान अवस्था को प्रमाणित करने में आदरणीय ए नागराज जी का प्रयास" 
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एक लोहे का परमाणु व अन्य किसी पदार्थ (ठोस, तरल, विरल/वायु) के परमाणु तभी प्रमाणित होते हैं जब वे सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी कर पाते हैं|यही वजह है कि पदार्थ अवस्था प्रमाणित है|
यही अवस्था बाकी ३ अवस्था (प्राण, जीव, मानव/ज्ञान) का आधार है| सोचिये यदि ये प्रमाणित नहीं होते तो क्या होता?

इसी तरह, प्राण अवस्था भी सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी कर स्वयं को प्रमाणित किया हर साँस लेती कोशिकाएँ इसका उदाहरण है|

जब ये दोनों अवस्था प्रमाणित हुई उसके पश्चात ही जीव अवस्था का प्रादुर्भाव हुआ और वह भी अपने अपने वंश के अनुसार सार्वभौम में भागीदारी कर स्वयं को प्रमाणित किया| इसका प्रमाण ही है जंगल, जमीन समृद्ध हैं| आपने यह कभी नहीं सुना होगा कि हाथियों ने जंगल में भारी तबाही मचाई य फिर शेर, बाघ ने इतने हिरन चीतल का शिकार कर घनघोर अपराध किया| हमें उनके आचरण पर पूरा विश्वास है| 
अब मानव अवस्था को देखते हैं तो मात्र एक, दो, तीन, मानवों के मानवीय आचरण या उनके प्रमाणित होने से क्या सम्पूर्ण मानव जाति/ अवस्था स्वयं को प्रमाणित कर पायेगी? जैसा कि बाकी तीनों अवस्था ने किया है?
नहीं ना?
जब तक एक एक मानव (समूची मानव अवस्था) अखंड समाज व सार्वभौम व्यवस्था में अपनी भागीदारी नहीं करेगा तब तक वह प्रमाणित नहीं हो सकती|
अत: यह हर प्रमाणित मानव का दायित्व /जिम्मेदारी बनता है कि वह प्रत्येक मानव को उसके जैसा बनाने का (गुणित होने का/ multiply) प्रयास करें| 

और इसी कार्य में ही आदरणीय ए नागराज जी (जिन्हें हम प्रेम से "बाबा जी" कह कर संबोधित करते हैं) लगे हुए हैं| उनकी सही मायने में पूजा करने या उन्हें श्रेष्ठ बताने का अर्थ है कि उनके जैसा बनने का प्रयास..|
जब तक यह स्थिति नहीं आती तब तक यह प्रयास करते जाना है क्योंकि इसके अलावा तो और कोई रास्ता नहीं दिखता निरन्तर सुख पाने का...ऐसा मेरा मानना है जानना शेष है|
जिन भाई बहनों की गति अच्छी है वे अन्य जिज्ञासुओं बंधुओं को सहयोग कर अपने दायित्व निभा ही रहे हैं| क्योंकि इसी तरह हम सब मिलकर ही एक दूसरे का सहयोग कर ही मानव अवस्था को प्रमाणित होने की स्थति में पहुँचा सकते हैं... 
हरी हर....

Friday, January 24, 2014

पीचडी

एक बच्चा जब अपनी पढ़ाई शुरू करता है माता-पिता के साथ वह भी इंजीनियर, डॉक्टर इत्यादि के सपने देखना शुरू करता है| (इन सब पदों के पीछे स्वयं व अपनों के लिए सुविधा का इंतजाम ही है|)
कुछ entrance exams (प्रवेश परीक्षा) के बाद उसका चयन होता है|
महँगी इंजीनियरिंग की पढ़ाई करता है, अगर उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं तो माता -पिता कर्ज लेकर अपने बच्चों को पढ़ाते हैं पर यह सभी को ज्ञात है कि ऐसे कॉलेजों का वातावरण कैसा होता है?
नतीजतन बच्चा सिर्फ आसमान में ही उड़ने के ख्वाब देखने लगता है|
उसे काफी प्रयास करने के बाद किसी अच्छे युनिवर्सिटी में एक अध्यापक की नौकरी मिलती है| अपने वह कई साल वहाँ पढ़ाने (तकनिकी ज्ञान) में लगाता है| तभी उसे अचानक पता चलता है कि इस जॉब (सम्मानीय शब्द) को बचाए रखने के लिए उसे पीचडी करना आवश्यक है| 
और पीचडी एक ऐसी बला है जो हर किसी के बस की बात नहीं है यदि पढ़ते पढ़ते ही (बगैर किसी ब्रेक के ) कर ली जाए तो ठीक है वर्ना...
मेरे जानकारी में ऐसे एक दो कुछ लोग हैं जो लगभग अपनी मानसिक संतुलन खोने की स्थिति में थे वह तो भावनात्मक सहयोग मिलने से ऐसी स्थति से स्वयं को निकाल पाये| 
अगर आप में क्षमता भी है तो भी आगे की प्रक्रिया इतनी जटील है (मार्गदर्शक प्रिय, हित, लाभ दृष्टि के चलते भावनात्मक शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ते) कि ये खून के आँसू रुला डालते हैं| 
यदि आप अच्छी खासी रकम जुगाड़ कर सकते हैं इनकी (मार्गदर्शक की) चमचागिरी कर सकते हैं तो आपकी पीचडी थोड़ी आसान हो जायेगी| 
खैर आधी उम्र बीतने के बाद जब आपको पता चलता है कि यह डीग्री अत्यंत आवश्यक है तो उस समय हालात होती है "ना घर के ना घाट के"...आप ठगे से महसूस करते हैं|
४५-४६ की उम्र में भी पीचडी की तैयारियों में लगे हुए हैं और इसे पूरा करने के लिए कई बार लोग ऐसे कार्यों को हाथ में लेते हैं जो इनके अहं को ठेस पहुंचाते हैं क्योंकि इसने आसमान से जमीन का सफर करना तो सीखा नहीं है|
अब बताइए इस बच्चे ने जो अब प्रौढ़ हो चूका है ने क्या जिंदगी जिया?
ना कभी खेतों में श्रम किया ना कभी कोई जीवन जीने की कला सीखी, ना ही शादी कर पा रहा है (कुछ खुशकिस्मत हैं जिन्हें उनके हमसफ़र मिल गये|) ना ही माता-पिता को समय दे पा रहा है खुशियाँ तो मीलों दूर...
अब अगर वह निर्णय लेता है कि उसे यह जॉब छोड़ कर कुछ और करना है तो वह क्या करे?
श्रम (प्रकृति के साथ किया गया कार्य) करना सीखा होता उसके महत्व को जाना होता तो समृद्धि के भाव में जीता पर अब वह समृद्धि (जिस शब्द को उसने कभी जाना नहीं उसके लिए तो समृद्धि का अर्थ खूब सारा पैसा है) के लिए शॉर्ट कट तरीके खोजता है जो "स्वयं के प्रति सम्मान और स्वयं में आत्मविश्वास" तो कतई नहीं ला सकता|

अत: मेरी उन माता-पिता से विनम्र प्रार्थना है कि आप अपने बच्चों को जरुर इंजीनिअर, डॉक्टर इत्यादि की शिक्षा दें पर साथ ही उन्हें धरती व मिट्टी से प्रेम करना सिखाएं,श्रम व मानव/ संबंध इसके महत्व को भी समझाएं ताकि वे "स्वयं में आत्मविश्वास और स्वयं के प्रति सम्मान" के भाव में, मूल्यों में जीते हुए अखंड समाज व सार्वभौम व्यवस्था में अपनी भागीदारी कर सके|
इसके लिए आपको "सही समझ" क्या है? यह सूचना प्राप्त करनी आवश्यक है| कृपया ध्यान देवें| 
एक बच्चे को "समझदारी" देने की जिम्मेदारी सर्वप्रथम माता-पिता की, फिर परिवार, फिर आस पास के लोग उसके पश्चात आखरी में शिक्षक की होती है ...
अत: स्वयं "समझदार" बनें और अपने बच्चों को यह अच्छा वातावरण घर में देवें| 
और जो पीचडी कर रहे हैं उनके सगे-सम्बन्धियों/ मित्रों से निवेदन है कि उन्हें भावनात्मक संबल देवें और उनका हौसला बढ़ाते रहिये ताकि उन्हें अकेलेपन का एहसास ना हो और अपनी इस मंजिल को वे प्राप्त कर सकें|
All the best and good wishes for PhD students :)