Monday, July 21, 2014

इंसानियत

अभी हाल में ही उत्तरप्रदेश की बच्चियाँ के साथ बुरा बर्ताव कर उन्हें फाँसी दे दी गई, एक माता जी के साथ भी ऐसी घटना घटी कि इंसानियत शब्द का अर्थ लोगों को बताने में भी शर्म महसूस होती है|  राजधानी दिल्ली में दामिनी के साथ जो कुछ हुआ था लोगों ने उसके चरित्र पर ही उंगली उठाई थी कि इतने रात बस में उसे सफर करने की आवश्यकता क्या थी?

दु:शासन ने ऐसी हरकत की तो द्रौपदी की लाज कृष्ण ने बचा ली पर इन बच्चियों ने क्या कृष्ण को नहीं पुकारा? क्या वे उनकी भक्त नहीं थी? उत्तरप्रदेश की बच्चियाँ बेहद धार्मिक प्रवृत्ति की होती है फिर क्यों नहीं आये कृष्ण, भगवान, ईश्वर इस युग के दु:शासन से उनकी रक्षा के लिए?

पकिस्तान में एक गर्भवती महिला को पत्थर मार मार कर उसकी हत्या कर दी गई| सीरिया, गाजा में आये दिन बच्चों, महिलों, पुरुषों पर वर्णन नहीं कर सकने वाले अत्याचार हो रहे हैं क्या उन्होंने वक्त पर नमाज़ अदा नहीं की थी.?

जो मिशनरी अपने धर्म के प्रचार के लिए दूसरे देश जाते हैं उन्हें जिन्दा जला दिया गया| कहाँ गए उनके गाॅड, प्रभु यीश जी?
पंजाब पहले ही कई हादसों से गुजर चूका वो अभी भी हमें याद है...जिस समय कई सिख परिवार हादसे के शिकार हो रहे थे वे क्या कभी किसी गुरुद्वारे नहीं गए थे? फिर क्यों उन निर्दोषों के साथ ये हादसे हुए?
कहाँ थे उस वक्त ये भगवान, अल्लाह, प्रभु यीश और वाहे गुरु? क्यों नहीं आये उस वक्त इन सबकी मदद के लिए?
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या फिर हम ही किसी भ्रम के शिकार हैं?
हम ही "ईश्वर", "भगवान", "अल्लाह", "वाहेगुरु", प्रभु यीश को कुछ और मान बैठे हैं|
कृपया इस पर बहुत ही गहरे से विचार करें|
विचार करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि यह धरती अब बीमार हो चुकी है और विज्ञानी/ पढ़े लिखे लोग इसे और बर्बाद करने में तुले हुए हैं| परमाणु बम बनाये जाते हैं फिर उसका प्रयोग किसी दूसरे देश में किया जाता है| कोई भगवान, ईश्वर उन्हें बचाने नहीं आता|
अगर आपको उम्मीद है कि कोई चमत्कार होने वाला है और आप सभी बच जायंगें| तो फिर स्वयं में जाँचने की आवश्यकता है|
यदि "ईश्वर", "भगवान", "अल्लाह", "वाहेगुरु", "प्रभु यीश" हमको बचा सकते हैं तो फिर हमें चुप चाप घर में बैठ जाना चाहिए पर अगर "ईश्वर", "भगवान", "अल्लाह", "वाहेगुरु", प्रभु यीश होते हुए भी ऐसा कुछ नहीं कर सकते तो जिम्मेदारी हम पर है|

यह धरती हमारी है| जितनी भी घटनायें होती है सहअस्तित्व के नियमों पर ही होती है उन नियमों को समझकर ही हम स्वयं की और इस धरती की व्यवस्था को जैसा है (पहले जैसा स्वस्थ) वैसा बनाये रख सकते हैं| यह हमारी साझा जिम्मेदारी है| हम इससे भाग नहीं सकते हमारे आने वाली पीढ़ी का भविष्य फिलहाल तो हमारे ही हाथ है|
इन सभी बातों को कृपया जाँचा जाये...माने नहीं|
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(समाधान- स्वयं का ही सुधार व सह-अस्तित्व के नियमों में जीना, दूसरों के लिए प्रेरणा है| मेरा समझदारी पूर्वक जीना दूसरों के लिए उदाहरण बन जाये और वह भी मेरे जैसे जीने लगे| तो इसके लिए स्वयं पर काम करने की आवश्यकता है|
समझदार बने.|

सूत्र-
समझना-->जीना-->समझाना
सीखना-->करना-->सीखाना

धन्यवाद!

Wednesday, July 2, 2014

दंड देना क्या न्याय है?

अगर हम बदला लेने या जिसने गलती की है उसे जेल भेजने/दंड देने को न्याय कहते हैं तो इसे जाँचते हैं

संबंध में...
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स्थिति १ - एक बहु को उसकी सासु माँ ने अपने समय में खूब दबाकर रखा..बहु सहमी सहमी उसके हर जुल्म को सहते सहते अपनी आधी जिंदगी ऐसे ही गुजार दी|
अब बहु का समय है उसने जितना उसकी सासु माँ ने उसके साथ व्यवहार किया उसे गिन गिन कर बदला निकाल रही है| बुजुर्ग हो चुकी सासु माँ के पास अब सिवाय आँसू बहाने और डर के कुछ नहीं है|
स्थिति-२ - बहु जो अपने सास के अत्याचार को सहन किया क्योंकि इसके पीछे कारण क्या है उन्हें यह बात समझ में आ रही थी अत: बगैर शिकायत भाव के उसने समय समय पर उन्हें अपनी माता का ही दर्जा देकर समझाने की कोशिश भी की पर कोई भी फर्क नहीं पड़ा...बहु ने अपने कर्तव्य (सेवा) और दायित्व (समझाना) का पूरी तरह से निर्वाह किया...बुजुर्ग होती सासु माँ उसके कर्तव्य (सेवा भाव) और धैर्य पूर्वक दायित्व (समझाना) निर्वाह से बेहद प्रभावित हुई और उनमें बहु के प्रति प्रेम, सम्मान और कृतज्ञता रुपी मूल्यों का बहाव होने लगा|
और इस तरह एक परिवार का वातावरण सुखद हो गया|
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अब बताएँ कौन सा वाला न्याय आपको सहज स्वीकार हो रहा है?
स्थिति १ या स्थति-२

साधन भट्टाचार्य भैय्या जी

साधन भट्टाचार्य भैय्या जी जीवन विद्या शिविर लेने एक नारी निकेतन से निमंत्रण मिलने पर गए| एक शानदार बंगला था कालीन बिछी हुई थी| एक से एक साजो सम्मान और सुविधा थी|
खिड़कियों में परदे लगे हुए थे| भैय्या जी को लगा कि आस पास के लोगों को बंगले में क्या चल रहा है इसे जानने में कुछ ज्यादा रुचि हो रही है तो उन्होंने सारे परदे खोलने को कहा| 
अब देखो क्या देखना है...
खैर शिविर प्रारंभ हुआ पहले तो सारी बहनें उसमें शामिल हुई फिर ७ दिन के शिविर में एक एक करके कम होने लगीं|
भैय्या जी को कुछ समझ में नहीं आया उन्होंने शिविर लेना जारी रखा| 
पर आखरी दिन तो एक भी बहन शिविर में नहीं आई भैय्या जी बस यूँ ही बैठे रह गए|
फिर उन्होंने सन्देश भिजवाया तो पता चला कि सब अपने अपने घर वापस चली गई|
अब नारी निकेतन के मालिक चिंता में पड़ गए उन्होंने कहा ये आपने क्या किया अब यह निकेतन कैसे चलेगा?
भैय्या ने कहा यह तो आपको खुश होना चाहिए कि बहने वापस अपने घर चली गई आप घर तोड़ना चाहते हैं कि जोड़ना?
इसके आगे शायद उन्होंने कुछ नहीं कहा| 
तो यह था एक शिविर का असर 
इस घटना का जिक्र भैय्या जी अपने शिविर में अक्सर किया करते हैं| ऐसे एक नहीं कई उदाहरण मिल जायंगें| हर शिविर लेने वाले के पास ऐसे कई उदाहरण होते हैं जो उनको उत्साह और खुशीयों से भर देता है और यही उनकी पेमेंट है|

नोट- यह चित्र मैंने संकेत भैय्या जी के फोटो से लिया है|
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=668736663159678&set=pb.100000700513613.-2207520000.1402201414.&type=3&theater
इस बेहतरीन चित्र के लिए आभार|

कैसा विकास चाहिए आपको?

विकास का कौन सा अर्थ आपको सहज स्वीकार होता है?

१) धन, दौलत, गाड़ी, एशो आराम, शानदार बंगला, शानदार कांक्रीट की सड़कें, एक से एक मॉल से युक्त शहर
२) मानव चरित्र का विकास जिसमें पशु मानव से राक्षस मानव, राक्षस मानव से मानव, मानव से देव मानव, देव मानव से दिव्य मानव तक का सफर है|
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कहिये कैसा विकास चाहिए आपको या फिर प्राथमिकता में कौन सा पहले नंबर पर?

"ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" या "ब्रह्म सत्य जगत शाश्वत"

संक्षिप्त विचार
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=>"ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" 

इस मान्यता से हम स्वयं के साथ सम्पूर्ण जगत को मिथ्या मानकर चलते हैं| यह मान्यता अविश्वास की नींव पर ही रखी गई है| जब नींव ही "अविश्वास" पर रखी गई तब हम सम्पूर्ण जगत को मिथ्या मानकर चलते हैं और जब हम सम्पूर्ण जगत को मिथ्या मानकर चल रहे हैं तो दो बात सामने आती है या तो जगत (प्राणी/मानव/पदार्थ/सुविधा) का सम्पूर्ण त्याग करें या तो जगत (प्राणी/मानव/पदार्थ/सुविधा) का पूरी तरह से उपभोग करें| जितना मन चाहे उतना उपभोग करें/ शोषण करें...
परिणाम हम सबके सामने है अब यह धरती "मिथ्या शब्द" के चपेट में आकर बीमार हो गई है|
अब धरती बीमार तो सभी बीमार|

=>"ब्रह्म सत्य जगत शाश्वत" 

इस मान्यता से आप स्वयं के साथ सम्पूर्ण जगत को शाश्वत (शाश्वत का अर्थ है सदा सदा...बदलता नहीं, निरन्तर रहने वाली चीजें ) मानकर चलते हैं| इस मान्यता (मान्यता इसलिए क्योंकि यह किसी और का जानना है अभी हमारा जानना नहीं हुआ) की नींव ही 'विश्वास' पर रखी गई है| सर्वप्रथम आपको स्वयं पर विश्वास होता है कि मेरा वजूद है यह मात्र कल्पना/ मिथ्या नहीं|
मैं जीवन और मानव का संयुक्त रूप हूँ मुझमें यह क्रियाएँ हो रही है| जब स्वयं को जानकार विश्वास होता है तो औरों पर विश्वास होता है कि सामने वाला भी मेरे जैसा है उसमें भी यही क्रियाएँ हो रही है इसके पश्चात ही आप स्वयं के साथ जगत के प्रयोजन को समझने का और समझकर जीने का प्रयास करते हैं| इस तरह आप स्वयं के साथ सम्पूर्ण जगत (चारों अवस्था) के साथ जीने का प्रयास करते हैं| इस तरह आप स्वयं के साथ, सम्पूर्ण जगत (चारों व्यवस्था) के साथ न्याय पूर्वक जी पाते हैं|
तो आपने देखा कि इन दो प्रकार की मान्यताओं का प्रभाव हम पर कैसा हो रहा है?
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इस संक्षिप्त पेश किये गए विचार को कृपया माने नहीं स्वयं के अधिकार पर जाँचें|

हम विश्वास पूर्वक जीना चाहते हैं कि अविश्वास में?

हम विश्वास पूर्वक जीना चाहते हैं कि अविश्वास में?
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"ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या"
कि 
"ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत"
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क्या सहज स्वीकार होता है?

निश्चित रूप से आपका उत्तर स्वयं में आएगा कि "ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत" पर दूसरे ही क्षण आपमें दूसरा विचार उठेगा और उन लोगों को ज्यादा परेशान करेगा जो इसमें ज्यादा (वेद पुराण में) पारंगत हैं कि हमारे संत ऋषि- मुनि गलत कैसे हो सकते हैं जिन्होंने इसे देखा, जिनकी चाहना सर्व शुभ की है मानव जाति के कल्याण की है वे गलत कैसे हो सकते हैं| इस प्रकार आपके ऊपर उनका "मानना" हावी हो गया और आपने अपने अंदर की "सहज स्वीकृति" का गला घोंट दिया| 
अब इसका प्रभाव देखिये अब तक क्या हुआ?
शुरुआत ही अविश्वास से हुआ कि मात्र "ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या" अर्थात आप, हम, हमारे बच्चे, हमारा परिवार, समाज, हमारे द्वारा बनाई गई सारी प्रणाली, सारी प्रकृति ही मिथ्या है| इस प्रकार हम गृहस्थ में रहकर भी इस बात से पूरी तरह अनजान रहे कि परिवार ही इन सारी व्यवस्था ( अखंड समाज और सार्वभौम व्यवस्था) का आधार है| 
"ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या" का प्रभाव यह हुआ कि हम हमारे अपनों पर ही विश्वास नहीं कर पाये| औरों की बात ही छोड़िये हम स्वयं पर ही विश्वास नहीं कर पाये| 

"ब्रह्म से ही जीव-जगत पैदा हुआ और इसी में विलीन हो जाना बताया" इस एक और मान्यता का मतलब हम कुछ करें या ना करें आखिर ब्रह्म में ही तो समाना है सब कुछ माया है तो इससे अच्छा है कुछ करें ही नहीं बस ब्रह्म की याद में डूबे रहें और लोगों को इसके बारे में बताते रहे और लोग हमें दान दक्षिणा देते रहे| हम तो महान है क्योंकि हम उस ब्रह्म की याद में डूबे हुए हैं जो एकमात्र सत्य है और बाकी मिथ्या लोग, माया में डूबे लोग अगर हमें दान देंगें तो वे मोक्ष को प्राप्त हो जायेंगे| (यह उन लोगों की बात है जिन्हें प्रकृति के साथ श्रमपूर्वक उत्पादन/समृद्धि का ज्ञान नहीं )

एक बात और देखी..जैसे ही हमारे घर में किसी संबंधी की मृत्यु होती है आपको/ हमको ऐसा लगता है कि अब कुछ बचा ही नहीं..हम स्वयं को ठगा सा महसूस करते हैं कि हमने जिनके साथ तमाम जिंदगी का सफर तय किया वह इस दुनिया में ही नहीं है उसका अस्तित्व ही नहीं है चूँकि हमने तो मान रखा है ना कि "ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या" तो हमारा निराशा में जाना तो एकदम निश्चित है| 
अब इस घोर निराशा में डूबकर, जगत को मिथ्या मानकर, इस अविश्वास में रहकर हमने क्या उपलब्धि की यह हम सबके सामने है ही|
स्वयं का और परिवार में जीना सही नहीं रहा इसका असर समाज, देश व प्रकृति पर पड़ा|
धरती बीमार हो गई चूँकि "ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या" तो धरती का पेट फाड़ने से क्या होगा? वह भी तो हमारी तरह ब्रह्म में विलीन होने वाली है तो जब तक जी रहे हैं ऐसे करने में कोई बुराई नहीं है.......

तो बंधुओं बात यहाँ यह है कि हम यह नहीं कह रहे कि हमारे संत ऋषि मुनियों की सर्व मानव जाति की शुभ चाहना में कोई भी संदेह है...बिलकुल भी नहीं है बहुत से ऐसे महापुरुष थे जिनकी चाहना में शंका करना मूर्खता होगी और आज तक उन्होंने जो किया वह शायद ही हम कर सके.... वह एक आधार था जिस पर ही आगे का अनुसंधान हुआ|

तो गडबड़ी कहाँ हुई? चाहना में गडबड़ी थी/ कैसे करना में गडबड़ी थी या कार्य व्यवहार में गडबड़ी थी? क्यों यह धरती इतने शुभ चाहत और कार्य के बावजूद बीमार हुई?

गडबड़ी यह हुई कि हमने अस्तित्व को जैसा है वैसा पूरा नहीं देखा ("सही समझ" वास्तविकता को जैसा है वैसे ही देखने से आता है) अगर पूरा देखा होता तो जैसा है वैसा पूरा समझ पाते और समझा पाते और जिन्होंने पूरा देखा तब उनकी इतनी उम्र हो चुकी थी या जैसी भी स्थिति रही हो वे उस अनुभव को प्रमाणित नहीं कर पाये| 

आपको वो चार अन्धों वाली कहानी तो याद ही होगी सभी ने एक हाथी को अपने हाथ से स्पर्श कर कई तरह के निष्कर्ष निकाले|
एक ने हाथी के सूंड को पकड़ा तो उसे लगा कि यह तो सांप है|
एक ने हाथी का पैर पकड़ा तो उसे लगा कि यह खम्भा है|
एक ने उसकी पूछ पकड़ी तो उसे लगा कि यह तो रस्सी है|
फिर एक ने उसका कान स्पर्श किया तो उसे लगा कि यह सूपा है|
और सभी अपने अपने "मानना" में लगे रहे और उसे ही सही मानकर एक दूसरे से लड़ने लगे|
बस यही स्थिति है वर्तमान में इस संसार की|

अब यह तो आप ही तय करें कि
"ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" में जीना है 
कि 
"ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत" में ?
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अर्थात आपको विश्वास पूर्वक जीना है या अविश्वास में| यह आपको तय करना है क्योंकि ये शरीर यात्रा आपकी है और यह आपकी जिम्मेदारी है हम मात्र सूचना दे सकते हैं|

आप सभी का शुक्रिया कि आपने आज तक मुझे बेहद सम्मान से सुना| यह लेख थोड़ा कठोर है पर इसे आप सभी के साथ शेअर करना भी मुझे बेहद आवश्यक लगा| क्योंकि हर मानव "समझना" तो चाहता ही है| 
इस लेख में किसी भी प्रकार की त्रुटि के लिए क्षमा चाहूँगी| पेश किये गए विचार को कृपया माने नहीं स्वयं के अधिकार पर जाँचें|

सच्ची खुशी

एक अपने सबसे अच्छे मित्र का चित्रण कीजिये..उसके साथ बीते खुशनुमा पल याद कीजिये|
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चित्रण हो गया? चित्रण करके खुश हैं?
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अब बताये क्या आप उससे मित्रता उसकी सीरत (व्यवहार) देख कर किये थे?
कि सूरत देखकर किये थे?
कि धर्म/जाति देखकर किये थे?
बताइए?

फिर हम यह सब जाति, धर्म, मजहब हमारे जीने, मानव संबंधों में आड़े क्यों आता है? क्यों हम अपनी सच्ची खुशी इन सबके पीछे गंवाते हैं?
क्यों खुद भी दुखी होते हैं और औरों को भी दुख बाँटते हैं|
यहाँ क्या महत्वपूर्ण है?
व्यवहार या जात पात?
जो महत्वपूर्ण है उस पर हम क्यों काम नहीं करते?

मेरी पहचान

मेरी पहचान का मुख्य आधार क्या हो?
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मेरा धर्म, मेरी जाति,मेरा सम्प्रदाय, मेरा रंग, मेरा रूप, मेरा पद, मेरी भाषा?
या
"मानवीयता पूर्ण आचरण"?

भगवान????

......... ने इन लाखो लोगो को अकाल से क्यूँ पीड़ित होने दिया यदि वो भगवान या चमत्कारी थे? क्यूँ इन लाखो लोगो को भूंख से तड़प -तड़प कर मरने दिया?

{5}.......... के जीवन काल के दौरान बड़े भूकंप आये जिनमें हजारो लोग मरे गए।
(a) १८९७ जून शिलांग में
(b) १९०५ अप्रैल काँगड़ा में
(c) १९१८ जुलाई श्री मंगल असाम में

........... भगवान होते हुए भी इन भूकम्पों को क्यूँ नहीं रोक पाए?…क्यूँ हजारो को असमय मरने दिया?
यह एक कमेन्ट मैंने आज पढ़ा| इस पर प्रश्न उठे|
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प्रश्न-
क्या भगवान चमत्कारी होते हैं? क्या वे किसी भी भयंकर आपदा (भूकंप,ज्वालालामुखी) को रोक सकते हैं?
या फिर वे सभी रहस्यों से आपको मुक्त करते हैं और भयंकर आपदा का कारण और उसका निदान बताते हैं?
और ये जो भी आपदा आती है वह धरती के व्यवस्था के अर्थ में होती है या फिर धरती की तबाही के लिए?

प्रश्न-
भूख से मरने के लिए कौन जिम्मेदार है?
पदार्थ अवस्था, प्राण अवस्था (पेड़ पौधे और साँस लेती कोशिकाएँ), जीव अवस्था या फिर मानव अवस्था?

प्रश्न-
भगवान को क्या करना चाहिए?
क्या उनको हर भूखे के लिए खाना की व्यवस्था करनी चाहिए या फिर वे इन चार अवस्था ( पदार्थ अवस्था, प्राण अवस्था (पेड़ पौधे और साँस लेती कोशिकाएँ), जीव अवस्था, मानव अवस्था) में से एक इस आपदा के लिए जिम्मेदार अवस्था को "समझदार" बनने की प्रेरणा देनी चाहिए ताकि किसी भी आपदा के लिए वे आपस में सहयोग कर उससे निपटने के लिए सहज रूप से तैयार रहें|
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इसे जाँचे|

क्या आपके पास इन सब प्रश्नों के उत्तर हैं?

प्रश्न- १) जिस दिन इस धरती से तेल/पेट्रोलियम पदार्थ पूरी तरह खत्म हो जाएंगे उस दिन हम कैसे अपने वाहन चलाएंगे? विकल्प क्या है?
प्रश्न-२) धरती से पेट्रोलियम पदार्थ का पूरी तरह खत्म हो जाना किसके लिए समस्या और किसके लिए अवसर है?
प्रश्न-३) धरती में इस प्रकार के पदार्थ कैसे बनते हैं? इनको बनने में कितने वर्ष लगते हैं? और हम इसे धरती की व्यवस्था बगैर समझे निकाल कर कितने दिन में उपभोग करते हैं? हम सदुपयोग करते हैं या दुरुपयोग करते हैं?
प्रश्न-४) हम इन सब पदार्थ की कीमत चुकाते हैं? कि उस पदार्थ को निकाल कर हम तक पहुँचाने वाले की श्रम की कीमत चुकाते हैं?
प्रश्न-५) पेट्रोल का या ऐसे सभी धरती के पदार्थ का मूल्य क्या है?
प्रश्न-६) मूल्य और कीमत क्या अलग अलग बात है?
प्रश्न-७) अगर हम धरती से इस तरह कोयले, रेडिओएक्टिव , पेट्रोलियम पदार्थ निकलते रहेंगे तो धरती को क्या नुकसान हो सकता है?
प्रश्न-८) धरती को नुकसान होने की स्थिति में क्या मानव जाति, पशु पक्षी, पेड़ पौधे सुरक्षित रह पायेंगें?
इन सब समस्याओं का क्या समाधान है?
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क्या आपके पास इन सब प्रश्नों के उत्तर हैं? प्रश्न नंबर-४, ५ और ६ पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है?

महत्वपूर्ण क्या?

कितने मस्ती में रहते हैं ये नन्हें बच्चे..किसी बात की कोई फिक्र ही नहीं...मजा आ जाता है इनको देखकर
ये सिर्फ एक चीज में ही व्यस्त रहते हैं कि कैसे हमेशा खुश रहना है?
जैसे जैसे ये बड़े होने लगते हैं...इनकी सरलता जैसे कहीं खोने लग जाती है आखिर ऐसा क्या मिलता है इनको हमसे ऐसा... जो ये जैसे हैं वैसे नहीं रह पाते?
हमारी यंत्र/मान्यताएँ/ अपनापन-परायापन?

हमने (मॉडर्न सोसाइटी) कभी मानव को महत्वपूर्ण माना ही नहीं| उस नन्हें से बच्चे को हमने पैदा होते ही आया के हाथ सौंप दिया...
चूँकि हम कार्य कर रहे हैं उनकी हरकतों से परेशान होते हैं तो वीडियो गेम या टेलीविजन के सामने बिठा दिया|
थोड़े और बड़े हुए अच्छी शिक्षा के लिए उसे बोर्डिंग में भेज दिया...
हमने कभी यह ध्यान नहीं दिया कि वह नन्हा बच्चा क्या चाहता है?
उसे माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची अदि सम्बन्धियों की जरुरत होती है| उनसे वह प्रेम मूल्य सहित सभी मूल्यों की चाहना होती है|
पर हमने उन्हें इन सब से वंचित किया|
हमने उसे अपने कार्यों से यह सन्देश दिया कि महत्वपूर्ण यन्त्र है| महत्वपूर्ण मान्यतायं हैं| महत्वपूर्ण धन है|
अब इस बच्चे से आप यह अपेक्षा नहीं करें कि यह आपके बुढ़ापे में आपको महत्व देगा|
वह भी जिसे महत्वपूर्ण माने हुए है वैसा ही करेगा|
बिमार पड़े तो अस्पताल, बोर हो रहे हो तो टेलीविजन..और आपकी अच्छी परवरिश के लिए "वृद्धा आश्रम"|
इसे माने नहीं जाँचा जाये और अगर इसमें कुछ सच्चाई नजर आती है तो देरी किस बात की..आज से बच्चों को अपना महत्वपूर्ण और कीमती वक्त दीजिए...वह बच्चा और घर के अन्य संबंधी भी आपकी अन्य जरूरतों से ज्यादा महत्वपूर्ण है|