Sunday, October 2, 2016

जीव-चेतना में "न्याय" केवल चाहत के रूप में है.

हाल में जो भी घटनाएँ घट रही है इन सबके के कारण बाबा जी की इस पोस्ट "जीव-चेतना में "न्याय" केवल चाहत के रूप में है" ने काफी प्रभावित किया| बाबा ए. नागराज शर्मा जो की "चेतना विकास मूल्य शिक्षा/ मध्यस्थ दर्शन/ जीवन विद्या/ अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन के प्रणेता है ने वर्तमान स्थिति की काफी गहरे चिंतन किया जो इस स्थिति को समझने में मददगार है| इस पोस्ट को मैंने मध्यस्थ दर्शन ब्लॉग से लिया है जिसे राकेश गुप्ता भैया जी द्वारा संचालित किया जाता है|
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जीव-चेतना में जीते हुए मनुष्य में न्याय "चाहत" के रूप में होता है, न्याय प्रमाणित होना नहीं बन पाता। जीवन में जो १० क्रियाएं हैं - उनमें से ४.५ क्रियाएं ही जीव-चेतना में प्रमाणित हो पाती हैं। बाकी ५.५ क्रियाओं के प्रमाणित होने की अपेक्षा बनी रहती है। ऐसे में मनुष्य स्वयं के साथ न्याय चाहता है, पर दूसरों के साथ अन्याय करता रहता है। "स्वयं के साथ न्याय" का मतलब ऐसा निकलता है - मेरा सुविधा-संग्रह बना रहे, दूसरों का चाहे जो भी हो। यही सोच आगे समुदाय के स्तर पर है, यही देश के स्तर पर है। "मेरे समुदाय के साथ न्याय", "मेरे देश के साथ न्याय"... इसका मतलब यही निकलता है, मेरे समुदाय का सुविधा-संग्रह बना रहे, बाकी सब चाहे मिट जाएँ। मेरे देश का सुविधा-संग्रह बना रहे, बाकी सब चाहे मरें। ऐसे क्या न्याय होगा?
जीव-चेतना में "प्रसन्नता" को न्याय माना, "दर्द" को अन्याय माना। प्रसन्नता (pleasure) और दर्द (pain) को संवेदनाओं के अर्थ में पहचाना। जैसे - एक परिवार के सदस्य की हत्या हो गयी। उस परिवार के सभी सदस्य दर्द से भर गए। अब क्या करें? उस हत्यारे की हत्या करने से, उसे पीड़ा पहुंचाने से, दर्द से भरे परिवार को प्रसन्नता मिलती है - ऐसा सोचा गया। इसको "न्याय" माना। "हमको दर्द नहीं होना चाहिए!" - इसको मौलिक-अधिकार माना। इसको jurisprudence कहा। इस धरती के सभी देशों की न्याय-संहिताओं की सोच इस पर बैठा है। "दर्द हुआ", उसके बदले में "प्रसन्न" करने के लिए राज्य-व्यवस्था बना दी। किस दर्द के बदले में क्या दंड देना है - इसको संविधान कह दिया। इस तरीके से न्याय तक हम क्या पहुँच सकते हैं? क्या एक गलती को दूसरी गलती से रोका जा सकता है? क्या एक अपराध को दूसरे अपराध से रोका जा सकता है?
जीव-चेतना में जीते हुए - न्याय की अपेक्षा जीवन में होती है, लेकिन न्याय को प्रमाणित करने की योग्यता नहीं रहती। न्याय मानव-चेतना में ही प्रमाणित होता है। न्याय का मतलब है - संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, और उभय-तृप्ति। सम्बन्ध जीवन और जीवन के बीच होता है। जीवन को समझे बिना न्याय कैसे होगा?
जीवचेतना में जीते हुए संबंधों के नाम तो हम पा गए हैं, पर संबंधों के प्रयोजन पहचान नहीं पाये हैं। इससे क्या होता है - जब तक "स्वयं के लिए न्याय" होता रहता है - तब तक हम सम्बन्ध को निभाते रहते हैं, जब "स्वयं के लिए न्याय" नहीं होता - या अपनी संवेदनाओं के अनुकूल बात नहीं होती, तो सम्बन्ध को जूता मार देते हैं। जबकि जीवन और जीवन का सम्बन्ध निरंतर बना ही हुआ है। संबंधों में न्याय प्रमाणित होने के लिए संबंधों की सटीक पहचान होना आवश्यक है। उसके लिए जीवन को समझना आवश्यक है। देखिये - शरीर के किसी अंग-प्रत्यंग (जैसे हाथ, पैर, दिमाग, ह्रदय, गुर्दा) में न्याय की प्यास नहीं है। न्याय की प्यास जीवन में ही है। शरीर को हम जीवन माने रहते हैं - जीव-चेतना में। ऐसे में क्या जीव-चेतना में न्याय मिल सकता है?
मानव-चेतना पूर्वक न्याय के प्रमाणित होने की प्रथम-स्थली है - परिवार। इस तरह व्यवस्था का जो स्वरूप निकलता है, वह है - परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था। इस तरह संविधान का जो स्वरूप निकलता है - वह है, मानवीय आचरण स्वरुपी संविधान। क्या होना चाहिए - आप सोच लो!
- बाबा श्री नागराज शर्मा के साथ संवाद पर आधारित (दिसम्बर २००८, अमरकंटक)
साभार- मध्यस्थ दर्शन ब्लॉग (जीवन विद्या - सह अस्तित्व में अध्ययन)